Monday, June 16, 2014

जयंत की धृष्टता ( मानस कृपा )





पंचवटी तरु छाँह बहु, सुषमा सुखद ललाम।
जीव-जंतु सब सुखी तंह, बास करति जंह राम.
बास करति जंह राम, श्री बनि आई सिय प्यारी।
दिन-दिन बढ़ै चन्द्र सों, महिमा अति अबतो न्यारी।
कह 'छंदक' कविराय, लखन निज प्रण ना भूले।
चहुँ दिसि चढ़ो बसंत, जूही, चम्पा, कचनार हैं फूले।।

वह बैरागी भेष में, सेवक पन लियो धारि।
यह रघुवंशी पुत्र है, कौन सकै पथ टारि।
कौन सकै पथ टारि, राम रच्छा प्रण लीन्हों।
पिता तुल्य उन मानि, मारग पर चलि दीन्हों।
कह 'छंदक' कविराय, लखन धनु हाथे लीन्हें।
सियराम चरण मन लाग, वो ना निज को चीन्हें।।

फिरहूँ रघुबर सीय संग, जब बैठे सिला सुबास।
पुष्प सँवारति केश के, सिय को तनिक न त्रास।
सिय को तनिक न त्रास, तब इंद्र पुत्र तंह आयो।
जनु धनु से छूटो बाण, काक बनिकै वह धायो।
कह 'छंदक' कविराय, सीय पग चोंच है मारी।
जो कीन्ह सिय पर घात, करै को वहिकी रखवारी।।

जयंत तबहिं भागा तुरत, राम दियो तृण तानि।
बान सरिस छोड़ो उसे , राघव अब कस मानि।
राघव अब कस मानि, घृणित कार्य तेहि कीन्हा।
करि सिय पग को घायल, रघुबर से बैर है लीन्हा।
कह 'छंदक' कविराय, ऐसो लोक कतहुँ को नाहीं।
रघुबर से जो करत बैर, देत वहिको निज छांही।।

सकल लोक घूमति फिरो, पाछे तेहि के वो त्रान।
रच्छा को वहिकी करै , कौन बचावै तेहि प्रान।
कौन बचावै तेहि प्रान, भोले ने भी करि दी नाहीं।
व्याकुल बहुतै मन मांहि, जांउ केहि ढिग पाहीं।
कह 'छंदक' कविराय, दिखे मग नारद जी आवत।
तोहि रामहि सकैं बचाइ, कहूँ ना तुमरो भला देखावत।।











   

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