एक दिन जान्हवी घाट पर, पहुँचि गए प्रभु राम।
लखन लाल हैं संग तंह ,औ जनकलली सुखधाम।
औ जनकलली सुखधाम, थकित चलने से लागै।
मस्तक टपकति सीकर, ग्रीव पानी को मांगै।
कह 'छंदक' कविराय, मन में तब सोचें रघुराई।
भार्या बहुतै कष्ट में, कस गंगा के पारै जाई।।
ध्यान दियो तब गंग बिच, केवट परो देखाय।
दिनकर के वहु ताप से, बहुतै गयो झुलसाय।
बहुतै गयो झुलसाय, तबै रघुराई गोहरावै।
ओ भइया मेरे मीत , तनि नइया लइ आवै।
कह 'छंदक' कविराय, वहु जानो प्रभु है आयो
करि अतीत को ध्यान, उन संग रारि बढ़ायो।।
केवट बोलै बैन फिरि, नाव लै ना आवैं तीर।
धयान करो माता हमें, धक्का दीन्ह्यो छीर।
धक्का दीन्ह्यो छीर, यहि कारन हम ना आवैं।
तुम तो तारणहार , पार खुद ही होइ जावैं।
कह 'छंदक' कविराय, राम-सीता तन ताकैं।
कच्छप को कीन्हो दूर, आज बहुतै मन-माखैं।।
मनुहार कियो जब राम ने, तब केवट बोले बैन।
शर्त हमारी एक है प्रभू , तिरछे करि निज नैन।
तिरछे करि निज नैन, भक्त निज आस उचारै ।
करि जान्हवी के पार , बात अपनी कहि डारै।
कह 'छंदक' कविराय, पार हम गंगा के कीन्हा।
विनती एक प्रभु राम, पार भवसागर करि दीन्हा।।
No comments:
Post a Comment