Saturday, May 5, 2018

पैंजनी











पैंजनी के भावों पर एक प्रयास -
पैंजनी जब छन-छन बाजै, संदेश प्रिये को बताय रही है।
ज्वाला उठी उरअंतर में, वह प्रीति के भाव जगाय रही है।
लहर उठै जब उर सरिता, वह प्रेम की नाव चलाय रही है।
ऐसी हिलोर न रोके रुकै, वह पास पिया को बुलाय रही है।।
-छंदक

Friday, April 6, 2018

स्व. कवि प्रमोद तिवारी एवं स्व. कवि के डी हाहाकारी को विनम्र श्रद्धांजलि




दोनों महान कवियों को भावभीनी श्रद्धांजलि-
के डी की यादि सताइ रही।
प्रमोद कै गीत तो गाइ रही।
उइ अवधी कै खम्भ पुरान रहे।
उइ बाइबल, गीता, कुरान रहे।
उइ अवधी कै धारा खूब बहे।
उइ फुलझड़ी, चुटकुला खूब कहे।
अब उनके अइसी कौन कही।।
गीतन कइ झड़ी लगाइ गये।
बहुतै गीत तिवारी गाइ गये।
मंचन का सूना कराइ गये।
हमसब का बहुत रोवाइ गये।
अब उनकी धारा कौन बही।।
मंचन पर चूरन बेचि दिहिन।
उइ कविता धुरंधर खूब कहिन।
गीतन कै थाती बाँटि दिहिन।
प्रेमिन का पाती बाँटि दिहिन।
अब इनकी कमी का कैसे सही।।
-राजेश शुक्ल 'छंदक '

Sunday, April 1, 2018

त्रैलोक में संतोषी कौन

बेर खाये भीलनी के कुटिया को धन्य किया, 
अपनाया उसको भी वैसो को महान है। 
लंका के दुर्ग पर रघुवंश ध्वज गाड़ दिया, 
रावण को परास्त किया वैसो को बलवान है।
तम्बू में रहकर सैन्य त्रास को सहन किया,
उनसो इस धरनी पर कौन धैर्यवान है।
छब्बीस वर्षों तक तुम्हारे कानून झेल लिया,
त्रैलोक में संतोषी कौन उनके समान है।।



हे मातु भवानी, माँ कल्यानी, अभय प्रदायिनी आओ माँ। 
लाल चुनर को ओढ़ के माता, पैजनी अब छनकाओ माँ।
छः मास से माता मंदिर में हो, अब घर-घर में आओ माँ। 
खटरस व्यंजन मातु धरे हैं, रूचि-रूचि भोग लगाओ माँ।।


हे मातु धरा अब रोइ रही है, जन-जन को फुसलाओ माँ।
चंड- मुण्ड, महिषासुर मारे, अब दुष्ट अनेक सँभारो माँ।
हे कात्यायिनी, मातु अंबिके, लक्ष्मी बनके पधारो माँ।
भक्त को माता अभयदान दो, मन मंदिर पग धारो माँ।।

अभिमान भरी ना बातें हों, बोली में कहीं न गोली हो। 
छल, दंभ, प्रपंच रहे न कहीं, मन में मधु की झोली हो। 
ये घर मकरंद से भरा रहे, भ्रमरों की यहाँ पर टोली हो। 
कल्पना यही है छंदक की, हर मुख में प्रेम की बोली हो।।

Saturday, March 31, 2018

पारा 45



भानु तपै नभ में अइसे जनु
आगि लगी नभ मण्डल में।
जोगी को जोग सधै अब ना
देव विकल नभ मण्डल में।
सीकर चोटी से एड़ी बहत
है शांति नहीं नभ मण्डल में।
रौद्र भयो मृगशिरा बहुत ही
दुर्वासा दिखै नभ मण्डल में।।

परशुराम भये अस लागैं रवि
क्रोध की सीमा न देखाइ रही है।
महि आज तवा सगरी लागति
जनु चूल्हे पै नियति जराइ रही है।
सृष्टि विकल तड़पति सगरी
घन राशि कतहुं न देखाइ रही है।
अब दिवस गरम है आगी सों
घर-बाहर सब सुलगाइ रही है।


आप न आते चित्रकूट












।।जय -जय बजरंगबली।।

आते न जो धरनी पर प्रभू, सुग्रीव से राम मिलावत को।
रावण हरण किया सिय को,फिर उनको पता लगावत को।
सुमित्रा को लाल अचेत भयो, संजीवनी से प्राण बचावत को। 
आप न आते चित्रकूट यदि, तुलसी से राम लिखावत को। ।
-छंदक