Wednesday, June 11, 2014

पंचवटी में राम ( मानस कृपा )








































चित्रकूट प्रभु बास करि, पहुंचे गोदावरि तीर।
पवन चलै शीतल सुखद, पावन निर्मल नीर।
पावन निर्मल नीर, ठाँव रघुबर मन भायो।
बास करौं यहि जगह, सीय की सहमति पायो।
कह 'छंदक' कविराय, लखन दुःख बूड़त जावैं।
ये अवधपुरी के लाल, अरण्य में कष्ट उठावैं।।

चक्रवर्ति थे जनक मम, राम सरिस हैं भाय।
लाल-लड़ैते मातु सुत, विधि को नहीं सुहाय।
विधि को नहीं सुहाय, कैकयी की गै मति मारी।
अवध राजि की शांति को, निगल गयी महतारी।
कह 'छंदक' कविराय, लखन कुंठित अति होवै।
सिय भावज राजकुमारि, कस वन में दुःख ढोवै।।

पंचवटी में यहि तरह , क्लेश , छोभ - सन्ताप।
दशरथ के सुत सहि रहे, पावस , ठंढक - ताप।
भानु यहूँ निज शौर्य का, परिचय देत अपार।
राजवंश मुख झरि रहो , अविरल सीकर धार।
कह 'छंदक' कविराय, राम जब देखी सिय को।
जनक सुता कोमलांग, सनि सीकर देखै पिय को।।

तब रघुबर इच्छा समझि, लखन करत हैं काज।
बाँधति वो तृण ठांठरी, इहाँ न सेवक राज समाज।
पर्णकुटी को रचि रहे , जँह रहिहैं प्रिय सिय-राम।
यह तन अर्पित है उन्हें ,  बस हमें राम सों काम।
कह 'छंदक' कविराय, सिखावैं लखन जगत को।
इस तन से लो तुम काम,सिय रघुबीर भगत को।।    



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