जिनके घर बैठी बेटी क्वाँरी, उनकी कुछौ समझि ना आय।।
वर खोजै में अबतक भइया, टूटे जूता-चप्पल सारे।
अब तो वर का नाम लिए से, दिन में दिख रहे तारे।
खोपड़ी पीटि रही महतारी, उनकी कुछौ समझि ना आय।।
लड़का जानी लीवर जैसा, टांग से वह है लंगड़ा।
पीकर ठर्रा रोज़ शाम को, करता सबसे झगड़ा।
उनको चाही कार सवारी, उनकी कुछौ समझि ना आय।।
जो लड़का इंजिनियर बन गया, बाप के देखो तेवर।
दो लाख नहीं, बीस लाख चाहिए, साथ में चाही जेवर।
अब तो लागें सभी भिखारी, उनकी कुछौ समझि ना आय।।
कुण्डली जब वे देते, उनका सीना छत्तिस हो जाता।
लड़के की कुण्डली में देखो, शनि बैठे-बैठे गुर्राता।
अबतो मंगल पड़ गया भारी, उनकी कुछौ समझि ना आय।।
कुछ लोग दहेज़ के कारण, बेच दिए घर अपना।
रसुराल में बेटी सुखी रहे, यह है उनका सपना।
बिक गयी उनकी लोटिया-थारी,उनकी कुछौ समझि ना आय।।
यह दहेज़ का दानव अब, सुरसा के जैसा लगता।
ओ समाज के ठेकेदारों , यह तुमको भी ठगता।
घर में सिसके बेटी बिचारी, उनकी कुछौ समझि ना आय।।
वर खोजै में अबतक भइया, टूटे जूता-चप्पल सारे।
अब तो वर का नाम लिए से, दिन में दिख रहे तारे।
खोपड़ी पीटि रही महतारी, उनकी कुछौ समझि ना आय।।
लड़का जानी लीवर जैसा, टांग से वह है लंगड़ा।
पीकर ठर्रा रोज़ शाम को, करता सबसे झगड़ा।
उनको चाही कार सवारी, उनकी कुछौ समझि ना आय।।
जो लड़का इंजिनियर बन गया, बाप के देखो तेवर।
दो लाख नहीं, बीस लाख चाहिए, साथ में चाही जेवर।
अब तो लागें सभी भिखारी, उनकी कुछौ समझि ना आय।।
कुण्डली जब वे देते, उनका सीना छत्तिस हो जाता।
लड़के की कुण्डली में देखो, शनि बैठे-बैठे गुर्राता।
अबतो मंगल पड़ गया भारी, उनकी कुछौ समझि ना आय।।
कुछ लोग दहेज़ के कारण, बेच दिए घर अपना।
रसुराल में बेटी सुखी रहे, यह है उनका सपना।
बिक गयी उनकी लोटिया-थारी,उनकी कुछौ समझि ना आय।।
यह दहेज़ का दानव अब, सुरसा के जैसा लगता।
ओ समाज के ठेकेदारों , यह तुमको भी ठगता।
घर में सिसके बेटी बिचारी, उनकी कुछौ समझि ना आय।।