Sunday, June 29, 2014

बैठी बेटी क्वाँरी

जिनके घर बैठी बेटी क्वाँरी, उनकी कुछौ समझि ना आय।।

वर खोजै में अबतक भइया, टूटे जूता-चप्पल सारे।
अब तो वर का नाम लिए से, दिन में दिख रहे तारे।
खोपड़ी पीटि रही महतारी, उनकी कुछौ समझि ना आय।।

लड़का जानी लीवर जैसा, टांग से वह है लंगड़ा।
पीकर ठर्रा रोज़ शाम को, करता सबसे झगड़ा।
उनको चाही कार सवारी, उनकी कुछौ समझि ना आय।।

जो लड़का इंजिनियर बन गया, बाप के देखो तेवर।
दो लाख नहीं, बीस लाख चाहिए, साथ में चाही जेवर।
अब तो लागें सभी भिखारी, उनकी कुछौ समझि ना आय।।

कुण्डली जब वे देते, उनका सीना छत्तिस हो जाता।
लड़के की कुण्डली में देखो, शनि बैठे-बैठे गुर्राता।
अबतो मंगल पड़ गया भारी, उनकी कुछौ समझि ना आय।।

कुछ लोग दहेज़ के कारण, बेच दिए घर अपना।
रसुराल में बेटी सुखी रहे, यह है उनका सपना।
बिक गयी उनकी लोटिया-थारी,उनकी कुछौ समझि ना आय।।

यह दहेज़ का दानव अब, सुरसा के जैसा लगता।
ओ समाज के ठेकेदारों , यह तुमको भी ठगता।
घर में सिसके बेटी बिचारी, उनकी कुछौ समझि ना आय।।


Friday, June 27, 2014

मेरा मोबाइल नंबर




नौ ग्रह इस ब्रह्माण्ड में, एक ब्रह्म अविकारी।
नौ दुर्गा हैं जग-जननी, अष्ट भुजा की धारी।
शून्य, शून्य में खोकर ऋषि, करते उसका ध्यान।
तीन लोक ब्रह्माण्ड में दिखते, छः दोषों का ना भान।
कह 'छंदक' कविराय, पांच तत्वों से रचा शरीर।
सप्त ऋषी रह गगन में, हरते सबकी भवबाधा-पीर।।




   

इस युग में अब ना

इस युग में अब ना आना रे, ओ लछ्मण के भइया।
जनकनन्दिनी के सुहाग-वर, तुलसी के रघुरइया।।

राजमहल की जगह मिलेंगे, अब बहुतेरे मंदिर।
सेवक-दासों की जगह दिखेंगे, सैनिक उनके अंदर।
वचन न मांगेगी दशरथ से, बेटे को कट्टा देगी मइया।।
इस युग में अब ना आना रे, ओ लछ्मण के भइया।

पुष्प वाटिका जहाँ बनी थी, अब मॉल बने बहुतेरे।
पहने जीन्स किशोर-किशोरी, अब करते पग फेरे।
जनकलली ना होगी वहॉँ पर, ढूँढना लव-लेटर लिखवइया।।
इस युग में अब ना आना रे, ओ लछ्मण के भइया।

पहुँच गए जो गंग तीर, तो बहुत दुर्दशा होगी।
केवट नाव चलाना छोड़कर, बन गया अब तो भोगी।
होटल-बार चलाता है वह, अब ना लाएगा नइया।।
इस युग में अब ना आना रे, ओ लछ्मण के भइया।

भाई का भायपन न दिखेगा, सब तो लड़ते होंगे।
लखन-शत्रुघन बन्दूकें लेकर, अहं में भिड़ते होंगे।
तात से जबरन लिखवाके वसीयत, करेंगे टा-टा भइया।।
इस युग में अब ना आना रे, ओ लछ्मण के भइया।

पवन पुत्र हनुमान सुनो अब, वन मेँ नहीँ मिलेंगे।
डब्लू-डब्लू-ई की रेशलिंग में, अबतो वहीँ दिखेंगे।
करके फिर आई एस डी कॉल तुम, बुलवाना रघुरइया।।
इस युग में अब ना आना रे, ओ लछ्मण के भइया।

हे मर्यादा पुरुषोत्तम रावण तुमको, अब लंका में नहीं मिलेगा।
रखके अनेकों रूप सब जगह, कन्याओं को डसता होगा।
कैसे मरेगा अब यह पापी, विभीषण की बन गया भूल-भुलइया।।
इस युग में अब ना आना रे, ओ लछ्मण के भइया।


           

Wednesday, June 25, 2014

भगवन भी मिल जायेंगे














तीर्थ जाने से सब पाप धुल जायेंगे।
जप- तप करने भोले भी हिल जायेंगे।
आंसू माता-पिता का अभिशाप है,
उनकी सेवा से भगवन भी मिल जायेंगे।।

बबूल की डाल पर कोयल रहती नहीं।
सूखे गन्ने से रस धार बहती नहीं।
जेब तंगी में जब अपनी रोने लगे ,
प्रेयसी प्यार से प्रियतम कहती नहीं।।

Monday, June 23, 2014

मुक्तक






बेचैन धरती की आहें बादलों को पता।
प्रेमी अपने की सूरत पागलों को पता।
प्यार का मीठा अहसास होता है क्या,
अपने पंख खोकर पतंगा है देता बता।।










जब दीपक मिला ख़ुशी से खिल गयी।
प्यार में वो उसके गले मिल गयी।
साथ चलने  में खुद को सोचे बिना,
बाती खुद को जला ख़ाक में मिल गयी।।









साथ सरिता के वो संग-संग चलने लगे।
प्रेम के बीज उनके मन में पलने लगे।
घावों का मोल कोई न सिंधु के सामने,
हंस के उसमें मिली वो हाथ मलने लगे।।




Thursday, June 19, 2014

कांटे वन के मिले














कांटे वन के मिले, राज उसको नहीं,
सारी नगरी आंसुओं में डूबती ही रही।
पुत्र राघव सा न मिलता दशरथ को जो,
उनके सत्य संकल्प को कौन करता सही।

राह  की कोर पर जो चले संग में,
ऐसे साथी हैं सबको मिलते नहीं।
संग जिसको दिया-बाती जैसा मिला,
पाँव उसके धरा पर हैं जलते नहीं।

चैन भी, साँस भी उसके बस में नहीं,
पाँव मंजिल पर सीधे चले जाते हैं।
साथ उसके जब हो सीता जैसी कोई,
तलवों में उसके छाले न पड़ पाते हैं।


    

Wednesday, June 18, 2014

मनाने चली






















सुख, वैभव से अब कोई मतलब नहीं।
नाते-रिश्तों से मीरा को मतलब नहीं।
प्याला विष का पिया ख़ुशी से इसलिए,
श्याम संग हैं तो दुनिया से मतलब नहीं।।

रूप राधा के जैसा है उसने धरा।
प्रेम उससे भी दुगना है उसमें भरा।
राधा के प्रेम से मेरा कम तो नहीं,
भक्ति का अनवरत सिंधु उसने भरा।।

राग वीणा पर अब वो गाने चली।
बनके जोगिन अब इस बहाने चली।
प्रेम पूरित नयन और भक्ती सहित ,
श्याम अपने को अब वो मनाने चली।।


Monday, June 16, 2014

जयंत की धृष्टता ( मानस कृपा )





पंचवटी तरु छाँह बहु, सुषमा सुखद ललाम।
जीव-जंतु सब सुखी तंह, बास करति जंह राम.
बास करति जंह राम, श्री बनि आई सिय प्यारी।
दिन-दिन बढ़ै चन्द्र सों, महिमा अति अबतो न्यारी।
कह 'छंदक' कविराय, लखन निज प्रण ना भूले।
चहुँ दिसि चढ़ो बसंत, जूही, चम्पा, कचनार हैं फूले।।

वह बैरागी भेष में, सेवक पन लियो धारि।
यह रघुवंशी पुत्र है, कौन सकै पथ टारि।
कौन सकै पथ टारि, राम रच्छा प्रण लीन्हों।
पिता तुल्य उन मानि, मारग पर चलि दीन्हों।
कह 'छंदक' कविराय, लखन धनु हाथे लीन्हें।
सियराम चरण मन लाग, वो ना निज को चीन्हें।।

फिरहूँ रघुबर सीय संग, जब बैठे सिला सुबास।
पुष्प सँवारति केश के, सिय को तनिक न त्रास।
सिय को तनिक न त्रास, तब इंद्र पुत्र तंह आयो।
जनु धनु से छूटो बाण, काक बनिकै वह धायो।
कह 'छंदक' कविराय, सीय पग चोंच है मारी।
जो कीन्ह सिय पर घात, करै को वहिकी रखवारी।।

जयंत तबहिं भागा तुरत, राम दियो तृण तानि।
बान सरिस छोड़ो उसे , राघव अब कस मानि।
राघव अब कस मानि, घृणित कार्य तेहि कीन्हा।
करि सिय पग को घायल, रघुबर से बैर है लीन्हा।
कह 'छंदक' कविराय, ऐसो लोक कतहुँ को नाहीं।
रघुबर से जो करत बैर, देत वहिको निज छांही।।

सकल लोक घूमति फिरो, पाछे तेहि के वो त्रान।
रच्छा को वहिकी करै , कौन बचावै तेहि प्रान।
कौन बचावै तेहि प्रान, भोले ने भी करि दी नाहीं।
व्याकुल बहुतै मन मांहि, जांउ केहि ढिग पाहीं।
कह 'छंदक' कविराय, दिखे मग नारद जी आवत।
तोहि रामहि सकैं बचाइ, कहूँ ना तुमरो भला देखावत।।











   

Sunday, June 15, 2014

बस ! अब और नहीं








    













दुष्कर्म जनित घटनाओं से, कलुषित होत समाज।
नीच , छिछोरे पुरुष मिलि, घृणित करति हैं काज।
घृणित करति हैं काज, नारिन पर उइ घात लगावैं।
दें बच्ची कहूँ तौ मारि, कहूँ तरुवर डारै लटकावैं।
कह 'छंदक' कविराय, पुरुष यह गिरिगे बहुतै नीचे।
काम पूर्ति हित भाय , लागि रहे बच्चिन का खींचे।।

कहुँ बस पर तौ लुटि रही, कहूँ खेतन मा मरजाद।
निशा-दिवस देखत नहीं, निज सुता न आवै याद।
निज सुता न आवै याद, वो घ्रणित करति हैं काज।
तड़पै बेटी तेहि समय , जनु जकरि लियो है बाज।
कह 'छंदक' कविराय, अब ऐसे बाजन का मारौ।
यहु गंदा होति तलाव, घास यह महुरही उखारौ।।

अब कैसे रच्छा करी , निज बच्चिन की यार।
मातु -पिता सोचति सबै, यह उल्टा चली बयार।
यह उल्टा चली बयार, राह कोउ नजरि न आवै।
जेहि पर करौ यकीन , वहै तौ छुरा चलावै।
कह 'छंदक' कविराय, पुरुष अब तौ अस बाढ़े।
डारौ कानूनी तुम फंदा, फांसी लटकाओ ठाढ़े।।

जिन पर बीतति है सुनौ, उनको कस मिले चैन।
सिसकें-तड़पें राति-दिन, मुख नहीं आवति बैन।
मुख नहीं आवति बैन, जीवन नरकै अस लागै।
जरति है यह तौ राह , को हाथ सुता का मागै।
कह 'छंदक' कविराय, मानौ यहु जइसे दुःख्वाब।
सुता होइ पांवन खड़ी, फिरि उनका मिले जवाब।।











Wednesday, June 11, 2014

पंचवटी में राम ( मानस कृपा )








































चित्रकूट प्रभु बास करि, पहुंचे गोदावरि तीर।
पवन चलै शीतल सुखद, पावन निर्मल नीर।
पावन निर्मल नीर, ठाँव रघुबर मन भायो।
बास करौं यहि जगह, सीय की सहमति पायो।
कह 'छंदक' कविराय, लखन दुःख बूड़त जावैं।
ये अवधपुरी के लाल, अरण्य में कष्ट उठावैं।।

चक्रवर्ति थे जनक मम, राम सरिस हैं भाय।
लाल-लड़ैते मातु सुत, विधि को नहीं सुहाय।
विधि को नहीं सुहाय, कैकयी की गै मति मारी।
अवध राजि की शांति को, निगल गयी महतारी।
कह 'छंदक' कविराय, लखन कुंठित अति होवै।
सिय भावज राजकुमारि, कस वन में दुःख ढोवै।।

पंचवटी में यहि तरह , क्लेश , छोभ - सन्ताप।
दशरथ के सुत सहि रहे, पावस , ठंढक - ताप।
भानु यहूँ निज शौर्य का, परिचय देत अपार।
राजवंश मुख झरि रहो , अविरल सीकर धार।
कह 'छंदक' कविराय, राम जब देखी सिय को।
जनक सुता कोमलांग, सनि सीकर देखै पिय को।।

तब रघुबर इच्छा समझि, लखन करत हैं काज।
बाँधति वो तृण ठांठरी, इहाँ न सेवक राज समाज।
पर्णकुटी को रचि रहे , जँह रहिहैं प्रिय सिय-राम।
यह तन अर्पित है उन्हें ,  बस हमें राम सों काम।
कह 'छंदक' कविराय, सिखावैं लखन जगत को।
इस तन से लो तुम काम,सिय रघुबीर भगत को।।    



Tuesday, June 10, 2014

गंग तीर अब राम ( मानस कृपा )






















एक दिन जान्हवी घाट पर, पहुँचि गए प्रभु राम।
लखन लाल हैं संग तंह ,औ जनकलली सुखधाम।
औ जनकलली सुखधाम, थकित चलने से लागै।
मस्तक टपकति सीकर, ग्रीव पानी  को मांगै।
कह 'छंदक' कविराय, मन में तब सोचें रघुराई।
भार्या बहुतै कष्ट में, कस  गंगा के पारै जाई।।

ध्यान दियो तब गंग बिच, केवट परो देखाय।
दिनकर के वहु ताप से, बहुतै गयो झुलसाय।
बहुतै गयो झुलसाय, तबै रघुराई गोहरावै।
ओ भइया मेरे मीत , तनि नइया लइ आवै।
कह 'छंदक' कविराय, वहु जानो प्रभु है आयो
करि अतीत को ध्यान, उन संग रारि बढ़ायो।।

केवट बोलै बैन फिरि, नाव लै ना आवैं तीर।
धयान करो माता हमें, धक्का दीन्ह्यो छीर।
धक्का दीन्ह्यो छीर, यहि कारन हम ना आवैं।
तुम तो तारणहार , पार खुद ही होइ जावैं।
कह 'छंदक' कविराय, राम-सीता तन ताकैं।
कच्छप को कीन्हो दूर, आज बहुतै मन-माखैं।।

मनुहार कियो जब राम ने, तब केवट बोले बैन।
शर्त हमारी एक है प्रभू , तिरछे करि निज नैन।
तिरछे करि निज नैन, भक्त निज आस उचारै ।
करि जान्हवी के पार , बात अपनी कहि डारै।
कह 'छंदक' कविराय,  पार हम गंगा के कीन्हा।
विनती एक प्रभु राम, पार भवसागर करि दीन्हा।।   

   

Monday, June 9, 2014

मग में राम ( मानस कृपा )






















दिनकर को परताप यह, आतम अमित है ताप।
राघवेंद्र प्रकटे रघुवंश में, जिनको अमिट प्रताप।
जिनको अमिट प्रताप, वन-गमन जब है कीन्हा।
उनको भी निज शौर्य का, रवि ने परिचय दीन्हा।
कह 'छंदक' कविराय, भ्राता, अर्द्धांगिनी है संग में।
अतिसय बढ़ो है ताप, थकित भे सबतो मग में।।

ध्यान दियो फिरि राम ने, भार्या थकित देखाय।
सूर्य किरण के शौर्य से,मुख आभा गै कुम्हलाय।
मुख आभा गै कुम्हलाय, ओंठ फिरि सूखे अब तो।
तब एक गांव परो दिखाय, रुके फिरि तीनों तब तो।
कह 'छंदक' कविराय, तहाँ ग्राम-नारी सब पूछें।
भगिनी जाओ कहँ को साथ, नात को इनसे बूझें।।

परिचय दे रहि मैथिली, तब प्रभु मन में मुस्काय।
गौर-वर्ण हैं देवर मम, तिन काँधे धनुष सुहाय।
तिन काँधे धनुष सुहाय, सांवरे जो दिखते प्यारी।
मुख घूँघट कोर दबाइ, सैनन कह्यो वो मेरे भरतारी।
कह 'छंदक' कविराय, नारी निज हाथन नीर पिआवें।
आवभगत बहुतै करैं, सब अपने सोये भाग्य जगावें।।

Sunday, June 8, 2014

तपै मृगशिरा






तपै मृगशिरा जून में, सोवति सुनो बयार। 
दिनकर के अब ताप से, बहै पसीना यार।
बहै पसीना यार, जीव सब ब्याकुल लागै,
छोड़ै आपन ठौर, छाँह के तन सब भागै।
कह 'छंदक' कविराय, बाल, महिष औ नारी।
इन्हें सतावति है बहुत, यह तौ गर्मी भारी।।

इह सूरज के ताप से, मिलै न जिव को चैन।
ऐसे में मनई सुनौ, कस बोलै मीठे बैन।
कस बोलै मीठे बैन, बात माहुर अस लागै,
भइया यह तौ पत्नी, अब बिलारि अस भागै।
कह 'छंदक' कविराय, यहु बस में ना है भाई।
बरसै ना जब तक पानी, पारा यहु चढ़तै जाई।।     

Thursday, June 5, 2014

बच्चा बना देती




प्यार में इतनी शक्ति होती है यारों,
जो झूठे को भी सच्चा बना देती है।
अपने  पर जो आ जाय  तो यारों,
खूसट बूढ़े को भी बच्चा बना देती है।।

लहरें ऊँचे उठकर इस जमाने को,
समंदर की गहराई बता देती हैं।
प्यार इससे भी गहरा होता सुनो,
नदियां उससे से मिल ये सिखा देती हैं।।

किसी ने बोला ये झील सी आखें,
किसी ने सागर भी इनको नाम दिया।
उफ़ कोई कैसे रहे सुकूं में सुनो,
इन्होंने कितनों है क़त्लेआम किया।। 

विश्व-पर्यावरण दिवस पर





















तरु छाँव जो देते तुम्हें हैं सदा,
उनके प्रति अब प्रीति दिखाओ।
फल देकर स्वाद बढ़ाते जो सुनो,
उनके भी अब तुम गुण गाओ।
जब तुमने धरा पग धरती पर,
तब से इस संग को ना बिसराओ।
बिन मांगे जो देता तुम्हें है सदा,
इस तरु को ना ऐसे तुम ठुकराओ।।

अब बंद करो तुम तरु मर्दन को ,
प्रीति का ऐसे ना मोल चुकाओ।
अब हाथ गहें न कुल्हाड़ी कभी ,
मन में तुम इस कसम को खाओ।
अरि जैसा कुकृत्य करें न कभी ,
निज मन में अब गांठ बँधाओ।
यह जीवन सार्थक होगा तभी ,
जब एक-एक पेंड़ धरा पे लगाओ।।


Tuesday, June 3, 2014

पतंगें उड़ी
















मौसम जीवन में बदले बहुत हैं मग़र।
पाँव घर से तो निकले बहुत हैं मग़र।
मंजिल सबको मयस्सर होती नहीं ,
इश्क़ की राह पर कितने टूटे ज़िगर।।

लैला-मजनू हुए, हीर -राँझा हुए।
दिल कितनो के अबतक साँझा हुए।
इस फलक़ पर पतंगें उड़ी साथ में ,
लेकिन हमतो वो कमज़ोर मांझा हुए।। 

कभी कम नहीं















छाँव पथ पर तुझको मिले ना मिले।
फूल दामन में तेरे खिले ना खिले।
जाना मंजिल पर है तुझको मगर ,
ओंठ शिकवे  को तेरे हिले ना हिले।।

साथ कोई न निकले कोई ग़म नहीं।
मौसम जो ना बदले कोई ग़म नहीं।
तपती रेती तुझे जो मिले तो मिले,
पाँव की गति हो तेरी कभी कम नहीं।।