Wednesday, April 9, 2014

हरि यहि जग में पगु धारें

















दशरथ के अब भाग्य जगे,
अपलक नेत्रन लोग निहारें।
अमरावति सों यह लागि रही,
यहि पर सगरी सृष्टि को वारें।
मातृत्व में भीजि रहा रनिवास,
दुंदिभि बाजै औ  ढोल नगारें।
नौमी तिथि मधुमास पुनीत,
हरि यहि जग में पगु धारें।

कोकिल कंठ सों गावैं जुबतीं,
ढोल औ झांझ बजाइ रही हैं।
कोना-कोना अब रनिवास के,
मिलिजुलि सबै सजाइ रही हैं।
द्वार पै  लटकति बंदनवार हैं,
सुषमा तो आज लजाइ रही हैं।
हुलसति जननी हैं सब मन में,
यहि पन सुत सुख जो पाइ रही हैं।   

No comments:

Post a Comment