(पूर्ववत् से आगे)
पंचम् ज्योर्तिलिंग श्री बैद्यनाथ
यह ज्योर्तिलिंग भारतभूमि के महाराष्ट्र प्रांत में औंढा स्थान के समीप स्थित है. इस स्थान को परली के नाम से जाना जाता है.
औंढा नागनाथ ज्योतिर्लिंग के दर्शन, पूजन तथा अभिषेक के बाद अब हमारा अगला पड़ाव था परली वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग जो की औंढा नागनाथ से लगभग 130 किलोमीटर की दुरी पर है, औंढा बस स्टैंड से सीधे परली के लिए महाराष्ट्र परिवहन की बसें उपलब्ध हैं, या फिर औंढा से परभणी और परभणी से परली पहुंचा जा सकता है, औंढा से हमें परली के लिए सीधी बस मिल गई थी अतः शाम करीब सात बजे हम परली पहुँच गए, परली बस स्टॉप से ऑटो रिक्शा में सवार होकर हम श्री परली वैद्यनाथ मंदिर पहुँच गए, परली में एक बड़ी अच्छी बात यह है की परली वैद्यनाथ मंदिर ट्रस्ट द्वारा संचालित यात्री निवास (धर्मशाला) मंदिर के एकदम करीब स्थित है, यानी मंदिर की सीढियों से एकदम लगा हुआ.
परली वैजनाथ मंदिर: एक विहंगम द्रश्य
हम जब भी धार्मिक यात्रा पर जाते हैं तो हमारी हमेशा यही कोशिश रहती है की विश्राम स्थल मंदिर के जितना हो सके करीब हो, ताकि अपने प्रवास के दौरान हमारा जितनी बार मन करे उतनी बार हम भगवान् के दर्शन कर पायें, साथ ही साथ मन में यह संतुष्टि भी होती है की हम मंदिर के करीब रह रहे हैं, और हम मंदिर की सारी गतिविधियाँ देख पाते हैं.
यात्री निवास में व्यवस्था भी अच्छी थी, 300 रु. में डबल बेड, अटेच्ड लेट बाथ, गरम पानी के अलावा एल सी डी टीवी आदि, कुल मिला कर ठीक ठाक व्यवस्था थी, रूम में चेक इन करने के बाद थोडा सा आराम करके हम भोजन की तलाश में निकल गए,
परली वैद्यनाथ– एक परिचय:
महाराष्ट्र राज्य के मराठवाडा क्षेत्र के बीड़ जिले में स्थित है धार्मिक नगर परली वैजनाथ (परली वैद्यनाथ), और यहाँ पर स्थित है भगवान शिव का सुप्रसिद्ध ज्योतिर्लिंग मंदिर, जिसमें विराजते हैं भगवान् वैद्यनाथ जो की शिवपुराण के कोटिरुद्रसंहिता के २८ वें अध्याय के अंतर्गत वर्णित द्वादशज्योतिर्लिंगस्तोत्रं के अनुसार भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक हैं. हालाँकि जैसे मैंने अपनी पिछली पोस्ट में बताया की इस ज्योतिर्लिंग के स्थान के बारे में भी लोगों के बिच मतभेद है तथा बहुत से लोग मानते हैं की यह ज्योतिर्लिंग झारखण्ड के देवघर में स्थित बैद्यनाथ धाम मंदिर में स्थित है, फिर भी भक्तों का एक बड़ा वर्ग मानता है की बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग परली में ही है.
भारत के नक़्शे पर कन्याकुमारी से उज्जैन के बीच अगर एक मध्य रेखा खिंची जाय तो उस रेखा पर आपको परली गाँव दिखाई देगा, यह गाँव मेरु पर्वत अथवा नागनारायण पहाड़ की एक ढलान पर बसा है. ब्रम्हा, वेणु और सरस्वती नदियों के आसपास बसा परली एक प्राचीन गाँव है तथा यहाँ पर विद्युत् निर्माण का बहुत बड़ा थर्मल पॉवर स्टेशन है. गाँव के आसपास का क्षेत्र पुराण कालीन घटनाओं का साक्षी है अतः इस गाँव को विशेष महत्व प्राप्त हुआ है.
पौराणिक किवदंती:
देव दानवों द्वारा किये गए अमृत मंथन से चौदह रत्न निकले थे, उनमें धन्वन्तरी और अमृत दो रत्न थे. अमृत को प्राप्त करने दानव दौड़े तब श्री विष्णु ने अमृत के साथ धन्वन्तरी को एक शिवलिंग में छुपा दिया था. दानवों ने जैसे ही उस शिवलिंग को छूने की कोशिश की वैसे ही शिवलिंग में से ज्वालायें निकलने लगी, लेकिन जब उसे शिवभक्तों ने छुआ तो उसमें से अमृतधारा निकलने लगी, ऐसा माना जाता है की परली वैद्यनाथ वही शिवलिंग है, अमृत युक्त होने के कारण ही इसे वैद्यनाथ (स्वास्थ्य का देवता ) कहा जाता है.
श्री वैद्यनाथ मंदिर शिल्प:
माना जाता है की वैद्यनाथ मंदिर लगभग 2000 वर्ष पुराना है, तथा इस मंदिर के निर्माण कार्य को पूरा होने में 18 वर्ष लगे थे, वर्त्तमान मंदिर का जीर्णोद्धार इंदौर की शिवभक्त महारानी देवी अहिल्याबाई होलकर ने अठारहवीं सदी में करवाया था. अहिल्या देवी को यह तीर्थ स्थान बहुत प्रिय था.
यह भव्य तथा सुन्दर मंदिर मेरु पर्वत की ढलान पर पत्थरों से बना है तथा गाँव की सतह से करीब अस्सी फीट की उंचाई पर है. इस मंदिर तक पहुँचने के लिए तीन दिशाएं तथा प्रवेश के तीन द्वार हैं. यह मंदिर गाँव के बाहरी इलाके में स्थित है तथा बस स्टैंड एवं रेलवे स्टेशन से चार किलोमीटर की दुरी पर है. इस मंदिर के शिल्प के विषय में एक रोचक कहानी है, महारानी अहिल्या बाई होलकर जिन्होंने इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया, उन्हें इस मंदिर के निर्माण के लिए अपनी पसंद का पत्थर प्राप्त करने में बड़ी कठिनाई हो रही थी, अंततः उन्हें अपने स्वप्न में उस पत्थर की जानकारी मिली तथा उन्हें आश्चर्य हुआ की जिस पत्थर के लिए परेशान हो रही थी वह परली नगर के समीप ही स्थित त्रिशाला देवी पर्वत पर उपलब्ध है.
मंदिर के चारों ओर मजबूत दीवारें हैं , मंदिर परिसर के अन्दर विशाल बरामदा तथा सभामंडप है यह सभामंडप साग की मजबूत लकड़ी से निर्मित है तथा यह बिना किसी सहारे के खड़ा है, मंदिर के बहार ऊँचा दीप स्तम्भ है तथा दीपस्तंभ से ही लगी हुई है पुण्यश्लोक देवी अहिल्याबाई की नयनाभिराम प्रतिमा. मंदिर के महाद्वार के पास एक मीनार है, जिसे प्राची या गवाक्ष कहते हैं, इनकी दिशा साधना के कारण मंदिर में चैत्र और आश्विन माह में एक विशेष दिन को सूर्योदय के समय सूर्य की किरणें श्री वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग पर पड़ती हैं. मंदिर में जाने के लिए काफी चौड़ाई लिए कई सारी मजबूत सीढियाँ हैं जिन्हें घाट कहते हैं. मंदिर परिसर में ही अन्य ग्यारह ज्योतिर्लिंगों के सुन्दर मंदिर भी स्थित हैं. मंदिर में प्रवेश पूर्व की ओर से तथा निकास उत्तर की ओर से है. यह एकमात्र स्थान है जहाँ नारद जी का मंदिर भी है. ज्योतिर्लिंग मंदिर के पहले ही शनिदेव तथा आदि शंकराचार्य के मंदिर भी हैं.
गर्भगृह:
इस मंदिर में गर्भगृह तथा सभाग्रह एक ही भू-स्तर (लेवल) पर स्थित होने के कारण सभामंडप से ही बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग के दर्शन हो जाते हैं, शिवलिंग एकदम काले शालिग्राम पत्थर से निर्मित है. गर्भगृह में चारों दिशाओं में एक एक अखंड ज्योति दीप हमेशा जलते रहते हैं. ज्योतिर्लिंग (जलाधारी सहित) को क्षरण से बचाने के लिए हर समय एक चांदी के आवरण से ढँक कर रखा जाता है, सिर्फ दोपहर में दो से तीन बजे के बिच श्रृंगार के लिए ही आवरण हटाया जाता है, अतः भक्तों को आवरण से ज्योतिर्लिंग के दर्शन पूजन करके संतुष्टि करनी पड़ती है. ज्योतिर्लिंग के ठीक ऊपर पांच माध्यम आकार के चांदी के गोमुख लटकते रहते हैं जो की भगवान वैद्यनाथ का अभिषेक करने में प्रयुक्त होते हैं. यहाँ पर भी मंदिर ट्रस्ट के नियमों के अंतर्गत 151 से लेकर 251 रु. के बिच दक्षिणा देकर पंचामृत से ज्योतिर्लिंग का रुद्राभिषेक किया जा सकता है लेकिन चांदी के आवरण के साथ ही. गर्भगृह माध्यम आकार का है तथा एक साथ अठारह से बीस लोग पूजन अभिषेक कर सकते हैं.
सभामंडप में गर्भगृह के ठीक सामने लेकिन थोड़ी दुरी पर एक ही जगह पर एक साथ तीन अलग अलग आकार के पीली आभा लिए पीतल के नंदी विद्यमान हैं, जहाँ से ज्योतिर्लिंग के स्पष्ट दर्शन होते हैं. गर्भगृह के प्रवेश द्वार के समीप ही माता पार्वती का मंदिर भी है.
षष्टम् ज्योर्तिलिंग श्री भीमशंकर
भारतवर्ष में प्रकट हुए भगवान शंकर के बारह ज्योतिर्लिंग में श्री भीमशंकर ज्योतिर्लिंग का छठा स्थान हैं। इस ज्योतिर्लिंग में कुछ मतभेद हैं। द्वादश ज्योतिर्लिंग स्तोत्र में ‘डाकिन्यां भीमशंकरम्’ ऐसा लिखा है, जिसमें ‘डाकिनी’ शब्द से स्थान का स्पष्ट उल्लेख नहीं हो पाता है। इसके अनुसार भीमशंकर ज्योतिर्लिंग मुम्बई से पूरब और
पूना से उत्तर भीमा नदी के तट पर अवस्थित है।
लोकव पुराण के अनुसार भीमशंकर ज्योतिर्लिंग असम प्रान्त के कामरूप जनपद में गुवाहाटी के पास ब्रह्मरूप पहाड़ी पर स्थित है। कुछ लोग तो
उत्तराखंड प्रदेश के नैनीताल ज़िले में ‘उज्जनक’ स्थान पर स्थित भगवान शिव के विशाल मन्दिर को भी भीमशंकर ज्योतिर्लिंग कहते हैं। श्री शिव महापुराण के कोटि रुद्र संहिता में श्री भीमशंकर ज्योतिर्लिंग के सम्बन्ध में इस प्रकार लिखा है–
‘लोक हित की कामना से भगवान शंकर कामरूप देश में ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हुए। उनका वह कल्याणकारक स्वरूप बड़ा ही सुखदायी था। पूर्वकाल में भीम नामक एक महाबलशाली और पराक्रमी राक्षस उत्पन्न हुआ था। वह अत्याचारी राक्षस जगह-जगह धर्म का नाश करता हुआ सम्पूर्ण प्राणियों को सताया करता था। भयंकर बलशाली वह राक्षस
कुम्भकर्ण के वीर्य और कर्कट की पुत्री कर्कटी के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। भीम अपनी माता कर्कटी के साथ ही ‘सह्य’ नामक पर्वत पर निवास करता था। उसने अपने जीवन में अपने पिता को कभी नहीं देखा था। एक दिन उसने आपनी माता से पूछा- ‘माँ! तुम इस पर्वत पर अकेली क्यों रहती हो? मेरे पिताजी कौन हैं और कहाँ रहते हैं? मुझे ये सब बातें जानने की बड़ी इच्छा है, इसलिए तुम सच-सच बताओ’–
मात मे क: पिता कुत्र कथं वैकाकिनी स्थिता।
ज्ञातुमिच्छमि तत्सर्वं यथार्थं त्वं वदाधुना।।
तदनन्तर उसकी माता कर्कटी ने उसे विस्तार से बताया कि तुम्हारे पिता का नाम कुम्भकर्ण था, जो रावण के छोटे भाई थे। महाबलशाली और पराक्रमी उस वीर को भाई सहित श्री राम ने मार डाला था। मेरे पिता अर्थात तुम्हारे नाना का नाम कर्कट और नानी का नाम पुष्कसी था। मेरे पूर्व पति का नाम ‘विराध’ था, जिन्हें पहले ही श्रीराम ने मार डाला था। मैं अपने प्रिय स्वामी विराध के मारे जाने पर अपने माता-पिता के पास आकर रहने लगी थी, क्योंकि मेरा सहारा अन्य कोई नहीं था। एक दिन मेरे माता-पिता आहार की खोज में निकले और उन्होंने अगस्त्य मुनि के परम शिष्य तपस्वी सुतीक्ष्ण को अपना आहार बनाना चाहा, किन्तु वे ऋषि महान तपस्वी और महात्मा थे। इसलिए उन्होंने कुपित होकर अपने तपोबल से मेरे माता-पिता को भस्म कर डाला। वे दोनों वहीं मर गये और मैं अकेली अनाथ हो गई। मुझ पर चारों तरफ से दु:ख का पहाड़ टूट पड़ा और मैं दु:खी होकर अकेली इस पर्वत पर रहने लगी। मेरा इस दुनिया में कोई अवलम्बन क्या सहारा भी न रहा और मैं आतुर होकर एकाकी ही किसी प्रकार अपना जीवन जी रही थी। एक दिन इस सुनसान पहाड़ पर राक्षसराज रावण के छोटे भाई महाबल और पराक्रम से युक्त कुम्भकर्ण आ गये।
उन्होंने मेरे साथ बलात्कार किया और समागम के बाद वे मुझे यहीं छोड़कर पुन: लंका में चले गये। उसके बाद समय पूरा होने पर तुम्हारा जन्म हुआ। बेटा! तुम अपने पिता के समान ही साक्षात महाबली और पराक्रमी हो। तुम्हें ही देख-देखकर, तुम्हारे ही सहारे अब मैं अपना जीवन चला रही हूँ और किसी तरह समय बीत रहा है।
अपनी माता कर्कटी के बात सुनकर भयानक पराक्रमी राक्षस कुपित हो उठा। उसने विचार किया कि विष्णु के साथ कैसा व्यवहार किया जाना चाहिए, उनसे प्रतिरोध (बदला) लेने का क्या उपाय है? वह चिन्तित होकर अपनी माँ की बातों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने लगा- ‘विष्णु ने मेरे पिता को मार डाला। मेरे नाना-नानी भी उनके ही भक्त के हाथों मारे गये। इतना ही नहीं विराध को भी उन्होंने ही मार डाला। निश्चित ही श्रीहरि ने मुझ पर बहुत ही अत्याचार किया है, अत्यधिक कष्ट दिया है। उसने निश्चय किया कि हरि द्वारा किये गये कृत्य का बदला वह अवश्य लेगा। उसने अपनी माता के सामने कहा कि यदि मैं अपने पिता का पुत्र हूँ, तो श्री हरि से अवश्य ही बदला लेकर रहूँगा, उन्हें भारी कष्ट दूँगा।
इस प्रकार निश्चय कर वह बलवान राक्षस अपनी शक्ति को और अधिक बढ़ाने के लिए तपस्या करने चला गया। उसने संकल्प लेकर ब्रह्माजी को प्रसन्न करने हेतु एक हज़ार वर्षों तक तप किया। वह मानसिक रूप से अपने इष्टदेव के ध्यान में ही मग्न रहता था। उसकी तपस्या, ध्यान और अर्चना-वन्दना से लोकपितामह ब्रह्मा जी प्रसन्न हो उठे। ब्रह्मा जी ने उसे वर देने की इच्छा से कहा- ‘भीम! मैं तुम्हारी तपस्या और धैर्य से बहुत प्रसन्न हूँ और तुम्हें वर देना चाहता हूँ। इसलिए तुम अपना अभीष्ट वर मांगो।' तदनन्तर उस राक्षस ने कहा– ‘देवेश्वर! यदि आप मेरे ऊपर सच में प्रसन्न हैं और मेरा भला करना चाहते हैं, तो आप मुझे अतुलनीय बल प्रदान कीजिए। मुझे इतना बल और पराक्रम प्राप्त हो, जिसकी तुलना कहीं भी न हो सके।’ इस प्रकार बोलते हुए राक्षस भीम ने बार-बार ब्रह्मा जी को प्रणाम किया।
उसकी तपस्या से प्रभावित ब्रह्मा जी उसे अतुलनीय बल-प्राप्ति का वर देकर अपने धाम चले गये। ब्रह्मा जी से अतुलनीय बल प्राप्त करने के कारण वह राक्षस अत्यन्त प्रसन्न हो गया। उसने अपने निवास पर आकर अपनी माता जी को प्रणाम किया और अत्यन्त अहंकार के साथ उससे कहा– ‘माँ! अब तुम मेरा बल और पराक्रम देखो। अब मैं इन्द्र इत्यादि देवताओं के साथ ही इनका सहयोग करने वाले महान श्री हरि का भी संहार कर डालूँगा। अपनी माँ से इस प्रकार कहने के बाद वीर राक्षस भीम ने इन्द्रादि देवताओं पर चढ़ाई कर दी। उसने उन सबको जीत लिया और उनके स्थान से उन्हें भगा दिया। उसके बाद तो उसने घोर युद्ध करके देवताओं का पक्ष लेने वाले श्रीहरि को भी परजित कर दिया।
उसके बाद भीम ने प्रसन्नतापूर्वक सम्पूर्ण पृथ्वी को जीतने का अभियान चलाया। वह सर्वप्रथम कामरूप देश के राजा सुदक्षिण को जीतने के लिए पहुँचा। उसने उस राजा के साथ भंयकर युद्ध किया। क्योंकि ब्रह्मा जी के वरदान से भीम के पास अतुलनीय शक्ति प्राप्त थी, इसलिए महावीर और शिव के परम भक्त सुदक्षिण युद्ध में परास्त हो गये। उसने राजा का राज्य और उनकी सम्पूर्ण सम्पत्ति को अपने अधिकार में ले लिया। इतने पर भी उस पराक्रमी राक्षस भीम का क्रोध शान्त नहीं हुआ, तो उसने धर्म प्रेमी और शिव के अनन्य भक्त राजा सुदक्षिण को कैद कर लिया। सुदक्षिण के पैरों में बेड़ी डालकर उन्हें एकान्त स्थान में निरुद्ध (बन्द) कर दिया। उस एकान्त स्थान का लाभ उठाते हुए शिव भक्त राजा सुदक्षिण ने भगवान शिव की उत्तम पार्थिव मूर्ति बनाकर उनका भजन-पूजन प्रारम्भ कर दिया।
गंगा जी को भी प्रसन्न करने के लिए राजा ने ढेर सारी स्तुति की और विवशता के कारण मानसिक स्नान किया। उसके बाद उन्होंने शास्त्र विधि से पार्थिव लिंग में भगवान शिव की अर्चना की। उसके बाद वे विधिपूर्वक भगवान शिव का ध्यान करते हुए पंचाक्षर मन्त्र अर्थात 'ॐ नम: शिवाय' का जप करने लगे। राजा सुदक्षिण इसी दिनचर्या को अपनाकर रात-दिन शिव जी की भक्ति में लगे रहते थे। उनकी साध्वी धर्मपत्नी रानी दक्षिणा भी राजा का अनुकरण करती हुई श्रद्धा-भक्ति पूर्वक पार्थिव पूजन में जुट गयीं। वे पति-पत्नी अकारण करुणावरुणालय भगवान शिव को प्रसन्न करने हेतु अनन्य भाव से उनकी भक्ति में लीन रहते थे।
राक्षस भीम ब्रह्मा जी के वरदान के कारण अत्यन्त अहंकार में डूब गया। अभिमान में मोहित होकर वह यज्ञों का विध्वंस करने लगा और तमाम धार्मिक कृत्यों में बाधा डालने लगा। उसने जनता में ऐसी घोषणा करवा दी कि संसार का सब कुछ उसे ही मानें और समझें। इस प्रकार उस दुष्ट राक्षस ने एक विशाल सेना इकट्ठी करके सम्पूर्ण पृथ्वी को अपने अधिकार में कर लिया। उसके बाद उसके दुराचारों की सीमा न रही।
राक्षस भीम के अत्याचार से पीड़ित सभी देवता और ऋषिगण महाकोशी नदी के किनारे जाकर भगवान शिव की आराधना और स्तुति करने लगे। उनकी सामूहिक स्तुति और प्रार्थना से भगवान शंकर ने देवताओं से कहा–‘देवगण तथा महर्षियों! मैं आप लोगों पर अत्यन्त प्रसन्न हूँ, बोलिए, आप लोगों का कौन-सा अभीष्ट कार्य (प्रियकार्य) सिद्ध करूँ?’ देवताओं ने देवाधिदेव से कहा कि ‘आप अन्तर्यामी हैं, इसलिए सबके मन की बात जानते हैं। आपसे कोई भी रहस्य छिपा नहीं रह सकता है।’ देवताओं ने आगे कहा– ‘महेश्वर! राक्षस कुम्भकर्ण से उत्पन्न कर्कटी का महाबलशाली पुत्र राक्षस भीम, ब्रह्मा जी से वर प्राप्त कर अत्यन्त शक्तिशाली और अभिमान में आ गया है तथा देवताओं को अनवरत कष्ट पहुँचा रहा है। भगवान! बिना देरी किये आप उस दु:खदायी राक्षस का शीघ्र ही नाश कर डालिए। हम सभी देवगण उससे अत्यन्त क्षुब्ध होकर आपकी शरण में आये हैं।’
भगवान शिव ने उन देवताओं को आश्वस्त करते हुए बताया कि कामरूप देश के राजा सुदक्षिण उनके श्रेष्ठ भक्त हैं। आप लोग उनके पास मेरा एक सन्देश सुना दो। उसके बाद आप लोगों का सारा अभीष्ट कार्य पूरा हो जाएगा। उनसे बोलना – कामरूप के अधिपति महाराज सुदक्षिण! तुम शिव के परम भक्त हो। इसलिए तुम उनका प्रेमपूर्वक भजन करो। दुष्ट राक्षस भीम ब्रह्मा जी का वर प्राप्त कर ही अभिमानी बन गया है और इसीलिए वह तुम्हारा अपमान कर रहा है। अपने भक्त के कष्ट को नहीं सहन करने वाले भगवान शिव शीघ्र ही उस दुष्ट राक्षस का नाश करने वाले हैं। इस वाणी में किसी भी प्रकार का सन्देह नहीं है।’ उसके बाद भगवान शंकर की वाणी से अत्यन्त प्रसन्न उन देवताओं ने महाराजा सुदक्षिण के पास पहुँचकर सारी घटना बताई। राजा को शिव का कल्याणकारक सन्देश देने से देवताओं और ऋषियों का हित करने वाले भगवान शंकर अपने गणों के साथ उस राजा के निकट जाकर गोपनीय रूप में वहीं ठहर गये। राजा सुदक्षिण विधिपूर्वक पार्थिवपूजन करके भगवान शिव के ध्यान में लीन हो गये।
किसी व्यक्ति ने जाकर राक्षस से बताया कि राजा पार्थिव पूजन करके तुम्हारे लिए अनुष्ठान कर रहे हैं। समाचार पाते ही राक्षस क्रोध से आग – बबूला हो उठा। वह राजा का वध करने हेतु हाथ में नंगी तलवार लेकर चल पड़ा। ध्यान में मग्न राजा को देखकर उसका चेहरा क्रोध से तमतमा रहा था। उसने पूजन सामग्री, पार्थिव शिवलिंग, वातावरण को देखकर तथा उसके प्रयोजन और स्वरूप को समझकर मान लिया कि राजा उसके अनिष्ट के लिए ही कुछ कर रहा है। उस महाक्रोधी राक्षस ने ऐसा विचार किया कि इन सब पूजन सामग्रियों सहित इस नरेश को भी मैं शीघ्र ही नष्ट कर देता हूँ। उसने राजा को डाँट-फटकार लगाते हुए पूछा कि ‘तुम यह क्या कर रहे हो?’ राजा भगवान शंकर के समर्पित भक्त थे। इसलिए उन्होंने निर्भयतापूर्वक कहा कि ‘मैं चराचर जगत के स्वामी भगवान शिव की पूजा कर रहा हूँ।’
यह सुनकर मद में मतवाले उस राक्षस ने भगवान शिव के प्रति बहुत से दुर्वचन बोले और उनका अपमान किया तथा पार्थिव लिंग पर तलवार का प्रहार किया। उसकी तलवार लिंग को छू नहीं पायी, तभी भगवान रुद्र (शिव) तत्काल प्रकट हो गये। उन्होंने कहा–‘देखो, मैं भीमेश्वर शिव अपने भक्त की रक्षा के लिए प्रकट हुआ हूँ। इसलिए राक्षस! अब तू मेरे बल और पराक्रम को देख।’ इस प्रकार बोलते हुए भगवान शिव ने अपने पिनाक से उसकी तलवार के टुकड़े-टुकड़े कर दिया। उसके बाद उस राक्षस ने शिव जी पर अपना त्रिशूल चला दिया, किन्तु उन्होंने उसके भी अनेक टुकड़े कर डाले। तदनंन्तर उस राक्षस ने शिव जी के साथ घोर युद्ध किया, जिससे सारा जगत क्षुब्ध हो उठा। उस स्थिति में मुनि नारद वहाँ पहुँच गये और उन्होंने भगवान शंकर से प्रार्थना की ‘महेश्वर! संसार को भ्रमित करने वाले मेरे नाथ! अब आप क्षमा करें। सामान्य तिनके को काटने हेतु कुल्हाड़ी चलाने की क्या आवश्यकता है? अब तो इसका संहार शीघ्र कर डालिए–
क्षम्यतां क्षम्यतां नाथत्वया विभ्रमकारक।
तृणे कश्च कुठारे वै हन्यतां शीघ्रमेव हि।।
इति संप्रार्थित: शम्भु: सर्वान रक्षोगणान्प्रभु:।
हुंकारेणैव चास्त्रेण भस्मसात्कृतवांस्तदा।।
इस प्रकार जब नारद जी ने भगवान शिव की प्रार्थना की, उन्होंने अपनी हुँकार मात्र से भीम सहित समस्त राक्षसों को भस्म कर डाला। उन राक्षसों को शंकर जी के द्वारा जला दिये जाने के बाद समस्त देवताओं और ऋषियों ने राहत की साँस ली तथा लोक में शान्ति की स्थापना हो सकी। ऋषियों ने देवाधिदेव भगवान शिव की विशेष स्तुति और प्रार्थना की। उन्होंने कहा–‘भूतभावन शिव!
यह क्षेत्र बहुत ही निन्दित माना जाता है, इसलिए लोक कल्याण की भावना से आप सदा के लिए यहीं निवास करें। प्राय: ऐसा देखा गया है कि जो व्यक्ति यहाँ आता है, उसे कष्ट ही मिलता है, किन्तु आपके दर्शन करने से प्रत्येक आने वाले का कल्याण होगा। भगवान! आपका यह ज्योतिर्लिंग सर्वथा पूजनीय तथा सभी प्रकार के संकटों को टालने वाला है। आप यहाँ भीमशंकर के नाम से प्रसिद्ध होंगे और सबके मनोरथों को सिद्ध करेंगे। इस प्रकार देवताओं तथा ऋषियों की प्रार्थना पर प्रसन्न भक्तवत्सल शिव ने उनका आग्रह स्वीकार कर लिया और प्रसन्नतापूर्वक वहीं स्थित हो गये। इस प्रकार की कथा का प्रामाणिक उल्लेख श्री शिव पुराण में विस्तार से किया गया है
अयं वै कुत्सितो देश अयोध्यालोकदु:खद:।
भवन्तं च तदा दृष्ट्वा कल्याणं सम्भाविष्यति।।
भीमशंकरनामा त्वं भविता सर्वसाधक:।
एतल्लिंग सदा पूज्यं सर्वापद्विनिवारकम्।।
इत्येवं प्रार्थित: शम्भुलोकानां हितकारक:।
तत्रैवास्थितवान्प्रीत्या स्वतन्त्रो भक्तवत्सल:।।
(क्रमश:)
पंचम् ज्योर्तिलिंग श्री बैद्यनाथ
यह ज्योर्तिलिंग भारतभूमि के महाराष्ट्र प्रांत में औंढा स्थान के समीप स्थित है. इस स्थान को परली के नाम से जाना जाता है.
औंढा नागनाथ ज्योतिर्लिंग के दर्शन, पूजन तथा अभिषेक के बाद अब हमारा अगला पड़ाव था परली वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग जो की औंढा नागनाथ से लगभग 130 किलोमीटर की दुरी पर है, औंढा बस स्टैंड से सीधे परली के लिए महाराष्ट्र परिवहन की बसें उपलब्ध हैं, या फिर औंढा से परभणी और परभणी से परली पहुंचा जा सकता है, औंढा से हमें परली के लिए सीधी बस मिल गई थी अतः शाम करीब सात बजे हम परली पहुँच गए, परली बस स्टॉप से ऑटो रिक्शा में सवार होकर हम श्री परली वैद्यनाथ मंदिर पहुँच गए, परली में एक बड़ी अच्छी बात यह है की परली वैद्यनाथ मंदिर ट्रस्ट द्वारा संचालित यात्री निवास (धर्मशाला) मंदिर के एकदम करीब स्थित है, यानी मंदिर की सीढियों से एकदम लगा हुआ.
परली वैजनाथ मंदिर: एक विहंगम द्रश्य
हम जब भी धार्मिक यात्रा पर जाते हैं तो हमारी हमेशा यही कोशिश रहती है की विश्राम स्थल मंदिर के जितना हो सके करीब हो, ताकि अपने प्रवास के दौरान हमारा जितनी बार मन करे उतनी बार हम भगवान् के दर्शन कर पायें, साथ ही साथ मन में यह संतुष्टि भी होती है की हम मंदिर के करीब रह रहे हैं, और हम मंदिर की सारी गतिविधियाँ देख पाते हैं.
यात्री निवास में व्यवस्था भी अच्छी थी, 300 रु. में डबल बेड, अटेच्ड लेट बाथ, गरम पानी के अलावा एल सी डी टीवी आदि, कुल मिला कर ठीक ठाक व्यवस्था थी, रूम में चेक इन करने के बाद थोडा सा आराम करके हम भोजन की तलाश में निकल गए,
परली वैद्यनाथ– एक परिचय:
महाराष्ट्र राज्य के मराठवाडा क्षेत्र के बीड़ जिले में स्थित है धार्मिक नगर परली वैजनाथ (परली वैद्यनाथ), और यहाँ पर स्थित है भगवान शिव का सुप्रसिद्ध ज्योतिर्लिंग मंदिर, जिसमें विराजते हैं भगवान् वैद्यनाथ जो की शिवपुराण के कोटिरुद्रसंहिता के २८ वें अध्याय के अंतर्गत वर्णित द्वादशज्योतिर्लिंगस्तोत्रं के अनुसार भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक हैं. हालाँकि जैसे मैंने अपनी पिछली पोस्ट में बताया की इस ज्योतिर्लिंग के स्थान के बारे में भी लोगों के बिच मतभेद है तथा बहुत से लोग मानते हैं की यह ज्योतिर्लिंग झारखण्ड के देवघर में स्थित बैद्यनाथ धाम मंदिर में स्थित है, फिर भी भक्तों का एक बड़ा वर्ग मानता है की बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग परली में ही है.
भारत के नक़्शे पर कन्याकुमारी से उज्जैन के बीच अगर एक मध्य रेखा खिंची जाय तो उस रेखा पर आपको परली गाँव दिखाई देगा, यह गाँव मेरु पर्वत अथवा नागनारायण पहाड़ की एक ढलान पर बसा है. ब्रम्हा, वेणु और सरस्वती नदियों के आसपास बसा परली एक प्राचीन गाँव है तथा यहाँ पर विद्युत् निर्माण का बहुत बड़ा थर्मल पॉवर स्टेशन है. गाँव के आसपास का क्षेत्र पुराण कालीन घटनाओं का साक्षी है अतः इस गाँव को विशेष महत्व प्राप्त हुआ है.
पौराणिक किवदंती:
देव दानवों द्वारा किये गए अमृत मंथन से चौदह रत्न निकले थे, उनमें धन्वन्तरी और अमृत दो रत्न थे. अमृत को प्राप्त करने दानव दौड़े तब श्री विष्णु ने अमृत के साथ धन्वन्तरी को एक शिवलिंग में छुपा दिया था. दानवों ने जैसे ही उस शिवलिंग को छूने की कोशिश की वैसे ही शिवलिंग में से ज्वालायें निकलने लगी, लेकिन जब उसे शिवभक्तों ने छुआ तो उसमें से अमृतधारा निकलने लगी, ऐसा माना जाता है की परली वैद्यनाथ वही शिवलिंग है, अमृत युक्त होने के कारण ही इसे वैद्यनाथ (स्वास्थ्य का देवता ) कहा जाता है.
श्री वैद्यनाथ मंदिर शिल्प:
माना जाता है की वैद्यनाथ मंदिर लगभग 2000 वर्ष पुराना है, तथा इस मंदिर के निर्माण कार्य को पूरा होने में 18 वर्ष लगे थे, वर्त्तमान मंदिर का जीर्णोद्धार इंदौर की शिवभक्त महारानी देवी अहिल्याबाई होलकर ने अठारहवीं सदी में करवाया था. अहिल्या देवी को यह तीर्थ स्थान बहुत प्रिय था.
यह भव्य तथा सुन्दर मंदिर मेरु पर्वत की ढलान पर पत्थरों से बना है तथा गाँव की सतह से करीब अस्सी फीट की उंचाई पर है. इस मंदिर तक पहुँचने के लिए तीन दिशाएं तथा प्रवेश के तीन द्वार हैं. यह मंदिर गाँव के बाहरी इलाके में स्थित है तथा बस स्टैंड एवं रेलवे स्टेशन से चार किलोमीटर की दुरी पर है. इस मंदिर के शिल्प के विषय में एक रोचक कहानी है, महारानी अहिल्या बाई होलकर जिन्होंने इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया, उन्हें इस मंदिर के निर्माण के लिए अपनी पसंद का पत्थर प्राप्त करने में बड़ी कठिनाई हो रही थी, अंततः उन्हें अपने स्वप्न में उस पत्थर की जानकारी मिली तथा उन्हें आश्चर्य हुआ की जिस पत्थर के लिए परेशान हो रही थी वह परली नगर के समीप ही स्थित त्रिशाला देवी पर्वत पर उपलब्ध है.
मंदिर के चारों ओर मजबूत दीवारें हैं , मंदिर परिसर के अन्दर विशाल बरामदा तथा सभामंडप है यह सभामंडप साग की मजबूत लकड़ी से निर्मित है तथा यह बिना किसी सहारे के खड़ा है, मंदिर के बहार ऊँचा दीप स्तम्भ है तथा दीपस्तंभ से ही लगी हुई है पुण्यश्लोक देवी अहिल्याबाई की नयनाभिराम प्रतिमा. मंदिर के महाद्वार के पास एक मीनार है, जिसे प्राची या गवाक्ष कहते हैं, इनकी दिशा साधना के कारण मंदिर में चैत्र और आश्विन माह में एक विशेष दिन को सूर्योदय के समय सूर्य की किरणें श्री वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग पर पड़ती हैं. मंदिर में जाने के लिए काफी चौड़ाई लिए कई सारी मजबूत सीढियाँ हैं जिन्हें घाट कहते हैं. मंदिर परिसर में ही अन्य ग्यारह ज्योतिर्लिंगों के सुन्दर मंदिर भी स्थित हैं. मंदिर में प्रवेश पूर्व की ओर से तथा निकास उत्तर की ओर से है. यह एकमात्र स्थान है जहाँ नारद जी का मंदिर भी है. ज्योतिर्लिंग मंदिर के पहले ही शनिदेव तथा आदि शंकराचार्य के मंदिर भी हैं.
गर्भगृह:
इस मंदिर में गर्भगृह तथा सभाग्रह एक ही भू-स्तर (लेवल) पर स्थित होने के कारण सभामंडप से ही बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग के दर्शन हो जाते हैं, शिवलिंग एकदम काले शालिग्राम पत्थर से निर्मित है. गर्भगृह में चारों दिशाओं में एक एक अखंड ज्योति दीप हमेशा जलते रहते हैं. ज्योतिर्लिंग (जलाधारी सहित) को क्षरण से बचाने के लिए हर समय एक चांदी के आवरण से ढँक कर रखा जाता है, सिर्फ दोपहर में दो से तीन बजे के बिच श्रृंगार के लिए ही आवरण हटाया जाता है, अतः भक्तों को आवरण से ज्योतिर्लिंग के दर्शन पूजन करके संतुष्टि करनी पड़ती है. ज्योतिर्लिंग के ठीक ऊपर पांच माध्यम आकार के चांदी के गोमुख लटकते रहते हैं जो की भगवान वैद्यनाथ का अभिषेक करने में प्रयुक्त होते हैं. यहाँ पर भी मंदिर ट्रस्ट के नियमों के अंतर्गत 151 से लेकर 251 रु. के बिच दक्षिणा देकर पंचामृत से ज्योतिर्लिंग का रुद्राभिषेक किया जा सकता है लेकिन चांदी के आवरण के साथ ही. गर्भगृह माध्यम आकार का है तथा एक साथ अठारह से बीस लोग पूजन अभिषेक कर सकते हैं.
सभामंडप में गर्भगृह के ठीक सामने लेकिन थोड़ी दुरी पर एक ही जगह पर एक साथ तीन अलग अलग आकार के पीली आभा लिए पीतल के नंदी विद्यमान हैं, जहाँ से ज्योतिर्लिंग के स्पष्ट दर्शन होते हैं. गर्भगृह के प्रवेश द्वार के समीप ही माता पार्वती का मंदिर भी है.
षष्टम् ज्योर्तिलिंग श्री भीमशंकर
भारतवर्ष में प्रकट हुए भगवान शंकर के बारह ज्योतिर्लिंग में श्री भीमशंकर ज्योतिर्लिंग का छठा स्थान हैं। इस ज्योतिर्लिंग में कुछ मतभेद हैं। द्वादश ज्योतिर्लिंग स्तोत्र में ‘डाकिन्यां भीमशंकरम्’ ऐसा लिखा है, जिसमें ‘डाकिनी’ शब्द से स्थान का स्पष्ट उल्लेख नहीं हो पाता है। इसके अनुसार भीमशंकर ज्योतिर्लिंग मुम्बई से पूरब और
पूना से उत्तर भीमा नदी के तट पर अवस्थित है।
लोकव पुराण के अनुसार भीमशंकर ज्योतिर्लिंग असम प्रान्त के कामरूप जनपद में गुवाहाटी के पास ब्रह्मरूप पहाड़ी पर स्थित है। कुछ लोग तो
उत्तराखंड प्रदेश के नैनीताल ज़िले में ‘उज्जनक’ स्थान पर स्थित भगवान शिव के विशाल मन्दिर को भी भीमशंकर ज्योतिर्लिंग कहते हैं। श्री शिव महापुराण के कोटि रुद्र संहिता में श्री भीमशंकर ज्योतिर्लिंग के सम्बन्ध में इस प्रकार लिखा है–
‘लोक हित की कामना से भगवान शंकर कामरूप देश में ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हुए। उनका वह कल्याणकारक स्वरूप बड़ा ही सुखदायी था। पूर्वकाल में भीम नामक एक महाबलशाली और पराक्रमी राक्षस उत्पन्न हुआ था। वह अत्याचारी राक्षस जगह-जगह धर्म का नाश करता हुआ सम्पूर्ण प्राणियों को सताया करता था। भयंकर बलशाली वह राक्षस
कुम्भकर्ण के वीर्य और कर्कट की पुत्री कर्कटी के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। भीम अपनी माता कर्कटी के साथ ही ‘सह्य’ नामक पर्वत पर निवास करता था। उसने अपने जीवन में अपने पिता को कभी नहीं देखा था। एक दिन उसने आपनी माता से पूछा- ‘माँ! तुम इस पर्वत पर अकेली क्यों रहती हो? मेरे पिताजी कौन हैं और कहाँ रहते हैं? मुझे ये सब बातें जानने की बड़ी इच्छा है, इसलिए तुम सच-सच बताओ’–
मात मे क: पिता कुत्र कथं वैकाकिनी स्थिता।
ज्ञातुमिच्छमि तत्सर्वं यथार्थं त्वं वदाधुना।।
तदनन्तर उसकी माता कर्कटी ने उसे विस्तार से बताया कि तुम्हारे पिता का नाम कुम्भकर्ण था, जो रावण के छोटे भाई थे। महाबलशाली और पराक्रमी उस वीर को भाई सहित श्री राम ने मार डाला था। मेरे पिता अर्थात तुम्हारे नाना का नाम कर्कट और नानी का नाम पुष्कसी था। मेरे पूर्व पति का नाम ‘विराध’ था, जिन्हें पहले ही श्रीराम ने मार डाला था। मैं अपने प्रिय स्वामी विराध के मारे जाने पर अपने माता-पिता के पास आकर रहने लगी थी, क्योंकि मेरा सहारा अन्य कोई नहीं था। एक दिन मेरे माता-पिता आहार की खोज में निकले और उन्होंने अगस्त्य मुनि के परम शिष्य तपस्वी सुतीक्ष्ण को अपना आहार बनाना चाहा, किन्तु वे ऋषि महान तपस्वी और महात्मा थे। इसलिए उन्होंने कुपित होकर अपने तपोबल से मेरे माता-पिता को भस्म कर डाला। वे दोनों वहीं मर गये और मैं अकेली अनाथ हो गई। मुझ पर चारों तरफ से दु:ख का पहाड़ टूट पड़ा और मैं दु:खी होकर अकेली इस पर्वत पर रहने लगी। मेरा इस दुनिया में कोई अवलम्बन क्या सहारा भी न रहा और मैं आतुर होकर एकाकी ही किसी प्रकार अपना जीवन जी रही थी। एक दिन इस सुनसान पहाड़ पर राक्षसराज रावण के छोटे भाई महाबल और पराक्रम से युक्त कुम्भकर्ण आ गये।
उन्होंने मेरे साथ बलात्कार किया और समागम के बाद वे मुझे यहीं छोड़कर पुन: लंका में चले गये। उसके बाद समय पूरा होने पर तुम्हारा जन्म हुआ। बेटा! तुम अपने पिता के समान ही साक्षात महाबली और पराक्रमी हो। तुम्हें ही देख-देखकर, तुम्हारे ही सहारे अब मैं अपना जीवन चला रही हूँ और किसी तरह समय बीत रहा है।
अपनी माता कर्कटी के बात सुनकर भयानक पराक्रमी राक्षस कुपित हो उठा। उसने विचार किया कि विष्णु के साथ कैसा व्यवहार किया जाना चाहिए, उनसे प्रतिरोध (बदला) लेने का क्या उपाय है? वह चिन्तित होकर अपनी माँ की बातों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने लगा- ‘विष्णु ने मेरे पिता को मार डाला। मेरे नाना-नानी भी उनके ही भक्त के हाथों मारे गये। इतना ही नहीं विराध को भी उन्होंने ही मार डाला। निश्चित ही श्रीहरि ने मुझ पर बहुत ही अत्याचार किया है, अत्यधिक कष्ट दिया है। उसने निश्चय किया कि हरि द्वारा किये गये कृत्य का बदला वह अवश्य लेगा। उसने अपनी माता के सामने कहा कि यदि मैं अपने पिता का पुत्र हूँ, तो श्री हरि से अवश्य ही बदला लेकर रहूँगा, उन्हें भारी कष्ट दूँगा।
इस प्रकार निश्चय कर वह बलवान राक्षस अपनी शक्ति को और अधिक बढ़ाने के लिए तपस्या करने चला गया। उसने संकल्प लेकर ब्रह्माजी को प्रसन्न करने हेतु एक हज़ार वर्षों तक तप किया। वह मानसिक रूप से अपने इष्टदेव के ध्यान में ही मग्न रहता था। उसकी तपस्या, ध्यान और अर्चना-वन्दना से लोकपितामह ब्रह्मा जी प्रसन्न हो उठे। ब्रह्मा जी ने उसे वर देने की इच्छा से कहा- ‘भीम! मैं तुम्हारी तपस्या और धैर्य से बहुत प्रसन्न हूँ और तुम्हें वर देना चाहता हूँ। इसलिए तुम अपना अभीष्ट वर मांगो।' तदनन्तर उस राक्षस ने कहा– ‘देवेश्वर! यदि आप मेरे ऊपर सच में प्रसन्न हैं और मेरा भला करना चाहते हैं, तो आप मुझे अतुलनीय बल प्रदान कीजिए। मुझे इतना बल और पराक्रम प्राप्त हो, जिसकी तुलना कहीं भी न हो सके।’ इस प्रकार बोलते हुए राक्षस भीम ने बार-बार ब्रह्मा जी को प्रणाम किया।
उसकी तपस्या से प्रभावित ब्रह्मा जी उसे अतुलनीय बल-प्राप्ति का वर देकर अपने धाम चले गये। ब्रह्मा जी से अतुलनीय बल प्राप्त करने के कारण वह राक्षस अत्यन्त प्रसन्न हो गया। उसने अपने निवास पर आकर अपनी माता जी को प्रणाम किया और अत्यन्त अहंकार के साथ उससे कहा– ‘माँ! अब तुम मेरा बल और पराक्रम देखो। अब मैं इन्द्र इत्यादि देवताओं के साथ ही इनका सहयोग करने वाले महान श्री हरि का भी संहार कर डालूँगा। अपनी माँ से इस प्रकार कहने के बाद वीर राक्षस भीम ने इन्द्रादि देवताओं पर चढ़ाई कर दी। उसने उन सबको जीत लिया और उनके स्थान से उन्हें भगा दिया। उसके बाद तो उसने घोर युद्ध करके देवताओं का पक्ष लेने वाले श्रीहरि को भी परजित कर दिया।
उसके बाद भीम ने प्रसन्नतापूर्वक सम्पूर्ण पृथ्वी को जीतने का अभियान चलाया। वह सर्वप्रथम कामरूप देश के राजा सुदक्षिण को जीतने के लिए पहुँचा। उसने उस राजा के साथ भंयकर युद्ध किया। क्योंकि ब्रह्मा जी के वरदान से भीम के पास अतुलनीय शक्ति प्राप्त थी, इसलिए महावीर और शिव के परम भक्त सुदक्षिण युद्ध में परास्त हो गये। उसने राजा का राज्य और उनकी सम्पूर्ण सम्पत्ति को अपने अधिकार में ले लिया। इतने पर भी उस पराक्रमी राक्षस भीम का क्रोध शान्त नहीं हुआ, तो उसने धर्म प्रेमी और शिव के अनन्य भक्त राजा सुदक्षिण को कैद कर लिया। सुदक्षिण के पैरों में बेड़ी डालकर उन्हें एकान्त स्थान में निरुद्ध (बन्द) कर दिया। उस एकान्त स्थान का लाभ उठाते हुए शिव भक्त राजा सुदक्षिण ने भगवान शिव की उत्तम पार्थिव मूर्ति बनाकर उनका भजन-पूजन प्रारम्भ कर दिया।
गंगा जी को भी प्रसन्न करने के लिए राजा ने ढेर सारी स्तुति की और विवशता के कारण मानसिक स्नान किया। उसके बाद उन्होंने शास्त्र विधि से पार्थिव लिंग में भगवान शिव की अर्चना की। उसके बाद वे विधिपूर्वक भगवान शिव का ध्यान करते हुए पंचाक्षर मन्त्र अर्थात 'ॐ नम: शिवाय' का जप करने लगे। राजा सुदक्षिण इसी दिनचर्या को अपनाकर रात-दिन शिव जी की भक्ति में लगे रहते थे। उनकी साध्वी धर्मपत्नी रानी दक्षिणा भी राजा का अनुकरण करती हुई श्रद्धा-भक्ति पूर्वक पार्थिव पूजन में जुट गयीं। वे पति-पत्नी अकारण करुणावरुणालय भगवान शिव को प्रसन्न करने हेतु अनन्य भाव से उनकी भक्ति में लीन रहते थे।
राक्षस भीम ब्रह्मा जी के वरदान के कारण अत्यन्त अहंकार में डूब गया। अभिमान में मोहित होकर वह यज्ञों का विध्वंस करने लगा और तमाम धार्मिक कृत्यों में बाधा डालने लगा। उसने जनता में ऐसी घोषणा करवा दी कि संसार का सब कुछ उसे ही मानें और समझें। इस प्रकार उस दुष्ट राक्षस ने एक विशाल सेना इकट्ठी करके सम्पूर्ण पृथ्वी को अपने अधिकार में कर लिया। उसके बाद उसके दुराचारों की सीमा न रही।
राक्षस भीम के अत्याचार से पीड़ित सभी देवता और ऋषिगण महाकोशी नदी के किनारे जाकर भगवान शिव की आराधना और स्तुति करने लगे। उनकी सामूहिक स्तुति और प्रार्थना से भगवान शंकर ने देवताओं से कहा–‘देवगण तथा महर्षियों! मैं आप लोगों पर अत्यन्त प्रसन्न हूँ, बोलिए, आप लोगों का कौन-सा अभीष्ट कार्य (प्रियकार्य) सिद्ध करूँ?’ देवताओं ने देवाधिदेव से कहा कि ‘आप अन्तर्यामी हैं, इसलिए सबके मन की बात जानते हैं। आपसे कोई भी रहस्य छिपा नहीं रह सकता है।’ देवताओं ने आगे कहा– ‘महेश्वर! राक्षस कुम्भकर्ण से उत्पन्न कर्कटी का महाबलशाली पुत्र राक्षस भीम, ब्रह्मा जी से वर प्राप्त कर अत्यन्त शक्तिशाली और अभिमान में आ गया है तथा देवताओं को अनवरत कष्ट पहुँचा रहा है। भगवान! बिना देरी किये आप उस दु:खदायी राक्षस का शीघ्र ही नाश कर डालिए। हम सभी देवगण उससे अत्यन्त क्षुब्ध होकर आपकी शरण में आये हैं।’
भगवान शिव ने उन देवताओं को आश्वस्त करते हुए बताया कि कामरूप देश के राजा सुदक्षिण उनके श्रेष्ठ भक्त हैं। आप लोग उनके पास मेरा एक सन्देश सुना दो। उसके बाद आप लोगों का सारा अभीष्ट कार्य पूरा हो जाएगा। उनसे बोलना – कामरूप के अधिपति महाराज सुदक्षिण! तुम शिव के परम भक्त हो। इसलिए तुम उनका प्रेमपूर्वक भजन करो। दुष्ट राक्षस भीम ब्रह्मा जी का वर प्राप्त कर ही अभिमानी बन गया है और इसीलिए वह तुम्हारा अपमान कर रहा है। अपने भक्त के कष्ट को नहीं सहन करने वाले भगवान शिव शीघ्र ही उस दुष्ट राक्षस का नाश करने वाले हैं। इस वाणी में किसी भी प्रकार का सन्देह नहीं है।’ उसके बाद भगवान शंकर की वाणी से अत्यन्त प्रसन्न उन देवताओं ने महाराजा सुदक्षिण के पास पहुँचकर सारी घटना बताई। राजा को शिव का कल्याणकारक सन्देश देने से देवताओं और ऋषियों का हित करने वाले भगवान शंकर अपने गणों के साथ उस राजा के निकट जाकर गोपनीय रूप में वहीं ठहर गये। राजा सुदक्षिण विधिपूर्वक पार्थिवपूजन करके भगवान शिव के ध्यान में लीन हो गये।
किसी व्यक्ति ने जाकर राक्षस से बताया कि राजा पार्थिव पूजन करके तुम्हारे लिए अनुष्ठान कर रहे हैं। समाचार पाते ही राक्षस क्रोध से आग – बबूला हो उठा। वह राजा का वध करने हेतु हाथ में नंगी तलवार लेकर चल पड़ा। ध्यान में मग्न राजा को देखकर उसका चेहरा क्रोध से तमतमा रहा था। उसने पूजन सामग्री, पार्थिव शिवलिंग, वातावरण को देखकर तथा उसके प्रयोजन और स्वरूप को समझकर मान लिया कि राजा उसके अनिष्ट के लिए ही कुछ कर रहा है। उस महाक्रोधी राक्षस ने ऐसा विचार किया कि इन सब पूजन सामग्रियों सहित इस नरेश को भी मैं शीघ्र ही नष्ट कर देता हूँ। उसने राजा को डाँट-फटकार लगाते हुए पूछा कि ‘तुम यह क्या कर रहे हो?’ राजा भगवान शंकर के समर्पित भक्त थे। इसलिए उन्होंने निर्भयतापूर्वक कहा कि ‘मैं चराचर जगत के स्वामी भगवान शिव की पूजा कर रहा हूँ।’
यह सुनकर मद में मतवाले उस राक्षस ने भगवान शिव के प्रति बहुत से दुर्वचन बोले और उनका अपमान किया तथा पार्थिव लिंग पर तलवार का प्रहार किया। उसकी तलवार लिंग को छू नहीं पायी, तभी भगवान रुद्र (शिव) तत्काल प्रकट हो गये। उन्होंने कहा–‘देखो, मैं भीमेश्वर शिव अपने भक्त की रक्षा के लिए प्रकट हुआ हूँ। इसलिए राक्षस! अब तू मेरे बल और पराक्रम को देख।’ इस प्रकार बोलते हुए भगवान शिव ने अपने पिनाक से उसकी तलवार के टुकड़े-टुकड़े कर दिया। उसके बाद उस राक्षस ने शिव जी पर अपना त्रिशूल चला दिया, किन्तु उन्होंने उसके भी अनेक टुकड़े कर डाले। तदनंन्तर उस राक्षस ने शिव जी के साथ घोर युद्ध किया, जिससे सारा जगत क्षुब्ध हो उठा। उस स्थिति में मुनि नारद वहाँ पहुँच गये और उन्होंने भगवान शंकर से प्रार्थना की ‘महेश्वर! संसार को भ्रमित करने वाले मेरे नाथ! अब आप क्षमा करें। सामान्य तिनके को काटने हेतु कुल्हाड़ी चलाने की क्या आवश्यकता है? अब तो इसका संहार शीघ्र कर डालिए–
क्षम्यतां क्षम्यतां नाथत्वया विभ्रमकारक।
तृणे कश्च कुठारे वै हन्यतां शीघ्रमेव हि।।
इति संप्रार्थित: शम्भु: सर्वान रक्षोगणान्प्रभु:।
हुंकारेणैव चास्त्रेण भस्मसात्कृतवांस्तदा।।
इस प्रकार जब नारद जी ने भगवान शिव की प्रार्थना की, उन्होंने अपनी हुँकार मात्र से भीम सहित समस्त राक्षसों को भस्म कर डाला। उन राक्षसों को शंकर जी के द्वारा जला दिये जाने के बाद समस्त देवताओं और ऋषियों ने राहत की साँस ली तथा लोक में शान्ति की स्थापना हो सकी। ऋषियों ने देवाधिदेव भगवान शिव की विशेष स्तुति और प्रार्थना की। उन्होंने कहा–‘भूतभावन शिव!
यह क्षेत्र बहुत ही निन्दित माना जाता है, इसलिए लोक कल्याण की भावना से आप सदा के लिए यहीं निवास करें। प्राय: ऐसा देखा गया है कि जो व्यक्ति यहाँ आता है, उसे कष्ट ही मिलता है, किन्तु आपके दर्शन करने से प्रत्येक आने वाले का कल्याण होगा। भगवान! आपका यह ज्योतिर्लिंग सर्वथा पूजनीय तथा सभी प्रकार के संकटों को टालने वाला है। आप यहाँ भीमशंकर के नाम से प्रसिद्ध होंगे और सबके मनोरथों को सिद्ध करेंगे। इस प्रकार देवताओं तथा ऋषियों की प्रार्थना पर प्रसन्न भक्तवत्सल शिव ने उनका आग्रह स्वीकार कर लिया और प्रसन्नतापूर्वक वहीं स्थित हो गये। इस प्रकार की कथा का प्रामाणिक उल्लेख श्री शिव पुराण में विस्तार से किया गया है
अयं वै कुत्सितो देश अयोध्यालोकदु:खद:।
भवन्तं च तदा दृष्ट्वा कल्याणं सम्भाविष्यति।।
भीमशंकरनामा त्वं भविता सर्वसाधक:।
एतल्लिंग सदा पूज्यं सर्वापद्विनिवारकम्।।
इत्येवं प्रार्थित: शम्भुलोकानां हितकारक:।
तत्रैवास्थितवान्प्रीत्या स्वतन्त्रो भक्तवत्सल:।।
(क्रमश:)
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