नारी सृष्टी की कर्णधार, इसका तुम सम्मान करो
नारी-नर की सहगामी, इसका मत अपमान करो।
असह्य वेदना सहकर वह, दुनिया में नर को लाती है।
सीने पर लातों को खाकर, बच्चे को दूध पिलाती है।
कौन सहन कर सकता है, नारी में इतनी छमता है।
देवों को भी वह भाती है, 'अनुसूया' में मन रमता है।
ऐसी सहनशील माता के, चरणों में परनाम करो।।
नारी-नर की सहगामी, इसका मत अपमान करो।
साथ चली जब नर के वह, पिता के घर को छोड़ दिया।
पली, बढ़ी जिस घर में वह, उससे मुंह तक मोड़ लिया।
जीवन में हर कष्ट सहन कर, वन 'सीता' जैसी चली गयी।
इस निर्मम दुनिया के हाथों, पग-पग पर वह ठगी गयी।
आँखों में छलके आंसू ना, आँचल को खुशियों से भरो।।
नारी-नर की सहगामी, इसका मत अपमान करो।
घर के आँगन में जिसने, गुड़ियों को अपनी खिलाया था।
पिता रुष्ट भाई से हो जब, खुद पिटकर उसे बचाया था।
प्यार उमड़ता है जब उसमें, राखी बनकर वह आती है।
लेती बलायें भइया की वह, फिर 'कर्मवती' बन जाती है।
हँसता चेहरा रहे बहन का, ऐसी कोई जतन करो।।
नारी-नर की सहगामी, इसका मत अपमान करो।
Nari ka samman to hona hi chahiye. Aise chhandak kavi ka bhi samman jarur hona chahiye. Like it.
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