Saturday, December 30, 2017
Sunday, August 13, 2017
श्री कृष्ण जन्माष्टमी
शुभ लगन भयो है कृष्ण पाख,
भादों की अब अष्टमी आयी.
राति अंधेरी समय सुहावन,
घनघोर घटा नभ में है छायी.
कांट, करील औ कुंज भये सब,
मुनि विप्रन ने फिर टेर लगायी.
देवकी कोख को धन्य कियो,
कान्हा जैसो है नाम धरायी.
दुष्ट दलन महिमंड़न के हित,
गोकुल आये हैं कृष्ण-कन्हाई.
वृषभान लली जो राधा भयी,
लीला करी फिर रास रचाई.
ब्रजमण्डल की रज धन्य कियो,
गोवर्धन को अंगुरी पे धराई.
आओ पुन: यहि भारत में फिर,
राजनीति की भाषा देउ पढ़ाई.
- छन्दक
भादों की अब अष्टमी आयी.
राति अंधेरी समय सुहावन,
घनघोर घटा नभ में है छायी.
कांट, करील औ कुंज भये सब,
मुनि विप्रन ने फिर टेर लगायी.
देवकी कोख को धन्य कियो,
कान्हा जैसो है नाम धरायी.
दुष्ट दलन महिमंड़न के हित,
गोकुल आये हैं कृष्ण-कन्हाई.
वृषभान लली जो राधा भयी,
लीला करी फिर रास रचाई.
ब्रजमण्डल की रज धन्य कियो,
गोवर्धन को अंगुरी पे धराई.
आओ पुन: यहि भारत में फिर,
राजनीति की भाषा देउ पढ़ाई.
- छन्दक
Thursday, August 3, 2017
मन अपने बहुत गुमान भरे,
मन अपने बहुत गुमान भरे,
गर्जन मुँह फारि करै बदरा.
जनु सेन सजाइ के राजा सों,
रन बीच में आइ भिरै बदरा.
जो खींचै म्यानते असि चपला,
चिंघरै, तड़पै औ बरसै बदरा.
परदेस बसैं हमरे तौ सजन,
हिय टीस उठै औ जरै बदरा.
जिउ तोर तौ पाहन अस लागै,
हिय मोरि कसक न लखै बदरा.
निज काज ते तुम लागति ऊबे,
अब काज तौ मोर करौ बदरा.
हलकान भयी जिउ हूक उठै,
तन सूखि कै कांट भयो बदरा.
मोबाइल लागति नहिं उनको,
हिय प्रीति को पानी भरौ बदरा.
बूंदन बान लगैं हिय पर,
अब बेधि रहीं सगरो बदरा.
बरिआई न तुमसों है कोऊ,
फिरि काहे कलेस तू दे बदरा.
काज दियो तुमको इक छोट,
वोहू न तुमसों सपरो बदरा.
सांस -उसांस तौ मोरी भई,
पिय बिन को रोग हरै बदरा.
- छन्दक
Friday, April 21, 2017
एलोवेरा एक चमत्कारी औषधि
शरीर को स्वस्थ और त्वचा में निखार लाने के लिए हमारे आस-पास कई प्राकृतिक औषधियां मौजूद हैं। प्राकृतिक एंव घरेलू उपचार में एलोवेरा एक ऐसी ही औषधि है। एलोवेरा का इस्तेमाल शरीर के रोगों को दूर करने के लिए ही नहीं बल्कि त्वचा एंव बालों की देखभाल के लिए भी किया जाता है। इसके अलावा एलोवेरा का इस्तेमाल मॉसराइजर के तौर पर भी किया जाता है।
तेज धूप हमारी स्किन और हेल्थ दोनों को नुकसान पहुंचाती है। थकान से हमारी त्वचा पर बुरा असर पड़ता है। वैसे तो बाजार में इस समस्या से बचने के कई विकल्प हैं। लेकिन प्राकृतिक उपचार(एलोवेरा) के द्वारा इसका इलाज काफी लाभदायक होता है। एलोवेरा शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है। इसमें एमीनो एसिड और 12 विटामिन्स की भरपूर मात्रा पाई जाती है। जो शरीर में खून की कमी को दूर करता है और शरीर की अंदरूनी सफाई कर हमारे शरीर एंव त्वचा को रोगाणु रहित बनाता है।
एलोवेरा एक उपयोगी औषधि
•सदियों में उपचार के रूप में उपयोग में लाये जाने वाले एलोवेरा में 75 से भी ज़्यादा गुण होते हैं। इसमें 20 तरह के प्रोटीन्स होते हैं जिनमें से 7 शरीर के लिए काफी उपयोगी होते हैं। इसके अलावा एलोवेरा में शारीरिक स्वास्थ्य के लिए उपयुक्त खनिज, जरूरी विटामिन तथा पोली सशराइड्स होते हैं जो शरीर की घाव भरने की क्षमता को दुरुस्त करते हैं। ऐलोवेरा में अमीनो अम्ल, विटामिन खनिज और कई महत्वपूर्ण एंजाइम होते हैं।
•ऐलोवेरा की पत्तियों से प्राप्त जैल में शरीर को स्वस्थ रखने की अद्भुत शक्ति होती है। जिससे हमारी त्वचा स्वस्थ और चमकदार बनती है। एलोवेरा एक ऐसा पौधा है जिसे कही पर भी लगाया जा सकता है। इसे सूर्य कि किरणों के साथ पानी की जरूरत भी कम पड़ती है।
•एलोवेरा के पत्ते का निचला हिस्सा औषधि के रूप में प्रयोग किया जाता है। पत्ते के नीचे वाले हिस्से को चौड़ाई में काटें और हाथों से इसे खोलें। इससे निकलने वाले पारदर्शी जेल को किनारे से निकालते हुए चेहरे पर लगायें।
•इसके अलावा बाजार में एलोवेरा युक्त कई उत्पाद उपलब्ध हैं। इन उत्पादों का उपयोग कर आप अपने बालों एंव त्वचा को खूबसूरत और आकर्षक बना सकते हैं।
एलोवेरा से होने वाले फायदे-
•चेहरे की सफाई के लिये एलोवेरा एक बेहतरीन स्किन टोनर है। इसका उपयोग चेहरे पर नियमित करने से त्वचा से अतिरिक्त तेल निकलता है। जिससे पिम्पल्स दूर होते हैं।
•चेहरे पर झुर्रियां पड़ने से हम बूढ़े दिखने लगते हैं। हमारी त्वचा भी लटक जाती है। झुर्रियां हमें समय से पहले बूढ़ा बना देती हैं। इससे बचने के लिए रोजाना एलोवेरा जेल से मालिश करें। यह त्वचा को अंदर से मॉइश्चराइज करता है। ऐलोवेरा का रस स्किन को टाइट बनाता है और इसमें मौजूद विटामिन सी से त्वचा हाइड्रेट भी बनी रहती हैं।
•त्वचा की नमी को बरकरार रखने के लिये गुलाब जल में एलोवेरा का रस मिलाकर लगाने से त्वचा की खोई नमी वापस लौटती है।
•एलोवेरा में एंटी बैक्टेरिया और एंटी फंगल जैसे गुण होते हैं। शरीर पर चोट लगने या जलने पर इसका जेल लगाने से आराम मिलता है। जलने के तुरन्त बाद इसके जेल को लगा लेने से छाले नहीं पड़ते और साथ ही जलन भी समाप्त हो जाती है।
•मोटापे और प्रेगनेंसी के कारण हमारे शरीर पर स्ट्रेच मार्क पड़ जाते है। अगर एलोवेरा की मालिश रोज की जाये तो यह काफी हद तक स्ट्रेच मार्क को कम कर देगा।
एलेवेरा का फेस पेक
चेहरे की सुंदरता को निखारने के लिये और कील मुहासों के दागों को हटाने में एलोवेरा अहम भूमिका अदा करता है। इसके लिये आप एक चुटकी हल्दी, एक चम्मच शहद और एक चम्मच दूध में गुलाब जल की कुछ बूंदों को मिलाकर एक अच्छा फेस पेक तैयार कर सकती हैं। फिर आप इसमें थोड़ा सा एलोवेरा का जैल मिला लें और इसे अच्छी तरह से मिक्स करें। अब आप इसे चेहरे और गर्दन पर लगायें। 20 मिनट तक लगाकर रखें और फिर ठंडे पानी से धो दें। इस फेस पेक को आप लगातार 1 हफ्ते तक लगाएं। आपको दाग-धब्बों से झुटकारा मिलेगा।
पिग्मन्टेशन मार्क्स हटाने के लिए एलोवेरा फेस पैक
एलोवेरा और गुलाब जल को मिलाकर पेस्ट तैयार करें। अब आप इसे चेहरे पर लगाएं और कम से कम 15 मिनट के लिए इसे ऐसे ही रहने दें। फिर आप ठंडे पानी से चेहरे को धो लें।
आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में लोग प्राकृतिक संसाधनों को पीछे छोड़ते जा रहे हैं और भौतिक संसाधनों को अपना रहे हैं। जिसके फायदे बहुत कम समय के लिए ही होते हैं। हमने आज आपको एलोवेरा के गुणों से परिचित कराया है। जो प्राकृतिक गुणों का भंड़ार है। जिसके कोई साइड इफेक्ट नहीं हैं और शरीर को भरपूर मात्रा में लाभ मिलता है। यह चेहरे पर चमक लाता है। इसका जैल त्वचा पर लगाने से एक्जिमा, पिंपल और सिरोसिस जैसी समस्यायें भी दूर होती हैं।
Tuesday, April 4, 2017
बासंतिक नवरात्र 8
माँ सिद्धिदात्री
माँ दुर्गाजी की नौवीं शक्ति का नाम सिद्धिदात्री हैं। ये सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाली हैं। नवरात्र-पूजन के नौवें दिन इनकी उपासना की जाती है। इस दिन शास्त्रीय विधि-विधान और पूर्ण निष्ठा के साथ साधना करने वाले साधक को सभी सिद्धियों की प्राप्ति हो जाती है। सृष्टि में कुछ भी उसके लिए अगम्य नहीं रह जाता है। ब्रह्मांड पर पूर्ण विजय प्राप्त करने की सामर्थ्य उसमें आ जाती है।
सिद्धगन्धर्वयक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि |
सेव्यमाना सदा भूयात् सिद्धिदा सिद्धिदायिनी ||
मार्कण्डेय पुराण के अनुसार अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व- ये आठ सिद्धियाँ होती हैं। ब्रह्मवैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण जन्म खंड में यह संख्या अठारह बताई गई है। इनके नाम इस प्रकार हैं-
माँ सिद्धिदात्री भक्तों और साधकों को ये सभी सिद्धियाँ प्रदान करने में समर्थ हैं। देवीपुराण के अनुसार भगवान शिव ने इनकी कृपा से ही इन सिद्धियों को प्राप्त किया था। इनकी अनुकम्पा से ही भगवान शिव का आधा शरीर देवी का हुआ था। इसी कारण वे लोक में 'अर्द्धनारीश्वर' नाम से प्रसिद्ध हुए।
माँ सिद्धिदात्री चार भुजाओं वाली हैं। इनका वाहन सिंह है। ये कमल पुष्प पर भी आसीन होती हैं। इनकी दाहिनी तरफ के नीचे वाले हाथ में कमलपुष्प है।
प्रत्येक मनुष्य का यह कर्तव्य है कि वह माँ सिद्धिदात्री की कृपा प्राप्त करने का निरंतर प्रयत्न करे। उनकी आराधना की ओर अग्रसर हो। इनकी कृपा से अनंत दुख रूप संसार से निर्लिप्त रहकर सारे सुखों का भोग करता हुआ वह मोक्ष को प्राप्त कर सकता है।
नवदुर्गाओं में माँ सिद्धिदात्री अंतिम हैं। अन्य आठ दुर्गाओं की पूजा उपासना शास्त्रीय विधि-विधान के अनुसार करते हुए भक्त दुर्गा पूजा के नौवें दिन इनकी उपासना में प्रवत्त होते हैं। इन सिद्धिदात्री माँ की उपासना पूर्ण कर लेने के बाद भक्तों और साधकों की लौकिक, पारलौकिक सभी प्रकार की कामनाओं की पूर्ति हो जाती है।
सिद्धिदात्री माँ के कृपापात्र भक्त के भीतर कोई ऐसी कामना शेष बचती ही नहीं है, जिसे वह पूर्ण करना चाहे। वह सभी सांसारिक इच्छाओं, आवश्यकताओं और स्पृहाओं से ऊपर उठकर मानसिक रूप से माँ भगवती के दिव्य लोकों में विचरण करता हुआ उनके कृपा-रस-पीयूष का निरंतर पान करता हुआ, विषय-भोग-शून्य हो जाता है। माँ भगवती का परम सान्निध्य ही उसका सर्वस्व हो जाता है।
इस परम पद को पाने के बाद उसे अन्य किसी भी वस्तु की आवश्यकता नहीं रह जाती। माँ के चरणों का यह सान्निध्य प्राप्त करने के लिए भक्त को निरंतर नियमनिष्ठ रहकर उनकी उपासना करने का नियम कहा गया है। ऐसा माना गया है कि माँ भगवती का स्मरण, ध्यान, पूजन, हमें इस संसार की असारता का बोध कराते हुए वास्तविक परम शांतिदायक अमृत पद की ओर ले जाने वाला है।
विश्वास किया जाता है कि इनकी आराधना से भक्त को अणिमा , लधिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, महिमा, ईशित्व, सर्वकामावसायिता, दूर श्रवण, परकामा प्रवेश, वाकसिद्ध, अमरत्व भावना सिद्धि आदि समस्त सिद्धियों नव निधियों की प्राप्ति होती है।
ऐसा कहा गया है कि यदि कोई इतना कठिन तप न कर सके तो अपनी शक्तिनुसार जप, तप, पूजा-अर्चना कर माँ की कृपा का पात्र बन सकता ही है। माँ की आराधना के लिए इस श्लोक का प्रयोग होता है। माँ जगदम्बे की भक्ति पाने के लिए इसे कंठस्थ कर नवरात्रि में नवमी के दिन इसका जाप करने का नियम है।
हे माँ! सर्वत्र विराजमान और माँ सिद्धिदात्री के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। या मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ। हे माँ, मुझे अपनी कृपा का पात्र बनाओ।
इस प्रकार यह माता का नवरात्र महापर्व देवी महात्म्य का रसपान कराता हुआ आज सम्पन्न होता है। माँ सभी लोगों पर अपनी कृपा सदैव बरसाती रहे।
* जय माता दी *
बासंतिक नवरात्र 7
माँ महागौरी
माँ दुर्गाजी की आठवीं शक्ति का नाम महागौरी है। दुर्गापूजा के आठवें दिन महागौरी की उपासना का विधान है। इनकी शक्ति अमोघ और सद्यः फलदायिनी है। इनकी उपासना से भक्तों को सभी कल्मष धुल जाते हैं, पूर्वसंचित पाप भी विनष्ट हो जाते हैं। भविष्य में पाप-संताप, दैन्य-दुःख उसके पास कभी नहीं जाते। वह सभी प्रकार से पवित्र और अक्षय पुण्यों का अधिकारी हो जाता है।
श्वेते वृषे समारुढा श्वेताम्बरधरा शुचिः |
महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा |
इनका वर्ण पूर्णतः गौर है। इस गौरता की उपमा शंख, चंद्र और कुंद के फूल से दी गई है। इनकी आयु आठ वर्ष की मानी गई है- 'अष्टवर्षा भवेद् गौरी।' इनके समस्त वस्त्र एवं आभूषण आदि भी श्वेत हैं।
महागौरी की चार भुजाएँ हैं। इनका वाहन वृषभ है। इनके ऊपर के दाहिने हाथ में अभय मुद्रा और नीचे वाले दाहिने हाथ में त्रिशूल है। ऊपरवाले बाएँ हाथ में डमरू और नीचे के बाएँ हाथ में वर-मुद्रा हैं। इनकी मुद्रा अत्यंत शांत है।
माँ महागौरी ने देवी पार्वती रूप में भगवान शिव को पति-रूप में प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या की थी, एक बार भगवान भोलेनाथ ने पार्वती जी को देखकर कुछ कह देते हैं। जिससे देवी के मन का आहत होता है और पार्वती जी तपस्या में लीन हो जाती हैं। इस प्रकार वषों तक कठोर तपस्या करने पर जब पार्वती नहीं आती तो पार्वती को खोजते हुए भगवान शिव उनके पास पहुँचते हैं वहां पहुंचे तो वहां पार्वती को देखकर आश्चर्य चकित रह जाते हैं। पार्वती जी का रंग अत्यंत ओजपूर्ण होता है, उनकी छटा चांदनी के सामन श्वेत और कुन्द के फूल के समान धवल दिखाई पड़ती है, उनके वस्त्र और आभूषण से प्रसन्न होकर देवी उमा को गौर वर्ण का वरदान देते हैं।
एक कथा अनुसार भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिए देवी ने कठोर तपस्या की थी जिससे इनका शरीर काला पड़ जाता है। देवी की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान इन्हें स्वीकार करते हैं और शिव जी इनके शरीर को गंगा-जल से धोते हैं तब देवी विद्युत के समान अत्यंत कांतिमान गौर वर्ण की हो जाती हैं तथा तभी से इनका नाम गौरी पड़ा। महागौरी रूप में देवी करूणामयी, स्नेहमयी, शांत और मृदुल दिखती हैं। देवी के इस रूप की प्रार्थना करते हुए देव और ऋषिगण कहते हैं “सर्वमंगल मंग्ल्ये, शिवे सर्वार्थ साधिके. शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोस्तुते..”।
महागौरी जी से संबंधित एक अन्य कथा भी प्रचलित है इसके जिसके अनुसार, एक सिंह काफी भूखा था, वह भोजन की तलाश में वहां पहुंचा जहां देवी उमा तपस्या कर रही होती हैं। देवी को देखकर सिंह की भूख बढ़ गयी परंतु वह देवी के तपस्या से उठने का इंतजार करते हुए वहीं बैठ गया। इस इंतजार में वह काफी कमज़ोर हो गया। देवी जब तप से उठी तो सिंह की दशा देखकर उन्हें उस पर बहुत दया आती है और माँ उसे अपना सवारी बना लेती हैं क्योंकि एक प्रकार से उसने भी तपस्या की थी। इसलिए देवी गौरी का वाहन बैल और सिंह दोनों ही हैं।
अष्टमी के दिन महिलाएं अपने सुहाग के लिए देवी मां को चुनरी भेंट करती हैं। देवी गौरी की पूजा का विधान भी पूर्ववत है अर्थात जिस प्रकार सप्तमी तिथि तक आपने मां की पूजा की है उसी प्रकार अष्टमी के दिन भी प्रत्येक दिन की तरह देवी की पंचोपचार सहित पूजा करते हैं।
माँ महागौरी का ध्यान, स्मरण, पूजन-आराधना भक्तों के लिए सर्वविध कल्याणकारी है। हमें सदैव इनका ध्यान करना चाहिए। इनकी कृपा से अलौकिक सिद्धियों की प्राप्ति होती है। मन को अनन्य भाव से एकनिष्ठ कर मनुष्य को सदैव इनके ही पादारविन्दों का ध्यान करना चाहिए।
पुराणों में माँ महागौरी की महिमा का प्रचुर आख्यान किया गया है। ये मनुष्य की वृत्तियों को सत् की ओर प्रेरित करके असत् का विनाश करती हैं। हमें प्रपत्तिभाव से सदैव इनका शरणागत बनना चाहिए।
या देवी सर्वभूतेषु माँ गौरी रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
माँ! सर्वत्र विराजमान और माँ गौरी के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। हे माँ, मुझे सुख-समृद्धि प्रदान करो।
( क्रमश: )
माँ दुर्गाजी की आठवीं शक्ति का नाम महागौरी है। दुर्गापूजा के आठवें दिन महागौरी की उपासना का विधान है। इनकी शक्ति अमोघ और सद्यः फलदायिनी है। इनकी उपासना से भक्तों को सभी कल्मष धुल जाते हैं, पूर्वसंचित पाप भी विनष्ट हो जाते हैं। भविष्य में पाप-संताप, दैन्य-दुःख उसके पास कभी नहीं जाते। वह सभी प्रकार से पवित्र और अक्षय पुण्यों का अधिकारी हो जाता है।
श्वेते वृषे समारुढा श्वेताम्बरधरा शुचिः |
महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा |
इनका वर्ण पूर्णतः गौर है। इस गौरता की उपमा शंख, चंद्र और कुंद के फूल से दी गई है। इनकी आयु आठ वर्ष की मानी गई है- 'अष्टवर्षा भवेद् गौरी।' इनके समस्त वस्त्र एवं आभूषण आदि भी श्वेत हैं।
महागौरी की चार भुजाएँ हैं। इनका वाहन वृषभ है। इनके ऊपर के दाहिने हाथ में अभय मुद्रा और नीचे वाले दाहिने हाथ में त्रिशूल है। ऊपरवाले बाएँ हाथ में डमरू और नीचे के बाएँ हाथ में वर-मुद्रा हैं। इनकी मुद्रा अत्यंत शांत है।
माँ महागौरी ने देवी पार्वती रूप में भगवान शिव को पति-रूप में प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या की थी, एक बार भगवान भोलेनाथ ने पार्वती जी को देखकर कुछ कह देते हैं। जिससे देवी के मन का आहत होता है और पार्वती जी तपस्या में लीन हो जाती हैं। इस प्रकार वषों तक कठोर तपस्या करने पर जब पार्वती नहीं आती तो पार्वती को खोजते हुए भगवान शिव उनके पास पहुँचते हैं वहां पहुंचे तो वहां पार्वती को देखकर आश्चर्य चकित रह जाते हैं। पार्वती जी का रंग अत्यंत ओजपूर्ण होता है, उनकी छटा चांदनी के सामन श्वेत और कुन्द के फूल के समान धवल दिखाई पड़ती है, उनके वस्त्र और आभूषण से प्रसन्न होकर देवी उमा को गौर वर्ण का वरदान देते हैं।
एक कथा अनुसार भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिए देवी ने कठोर तपस्या की थी जिससे इनका शरीर काला पड़ जाता है। देवी की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान इन्हें स्वीकार करते हैं और शिव जी इनके शरीर को गंगा-जल से धोते हैं तब देवी विद्युत के समान अत्यंत कांतिमान गौर वर्ण की हो जाती हैं तथा तभी से इनका नाम गौरी पड़ा। महागौरी रूप में देवी करूणामयी, स्नेहमयी, शांत और मृदुल दिखती हैं। देवी के इस रूप की प्रार्थना करते हुए देव और ऋषिगण कहते हैं “सर्वमंगल मंग्ल्ये, शिवे सर्वार्थ साधिके. शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोस्तुते..”।
महागौरी जी से संबंधित एक अन्य कथा भी प्रचलित है इसके जिसके अनुसार, एक सिंह काफी भूखा था, वह भोजन की तलाश में वहां पहुंचा जहां देवी उमा तपस्या कर रही होती हैं। देवी को देखकर सिंह की भूख बढ़ गयी परंतु वह देवी के तपस्या से उठने का इंतजार करते हुए वहीं बैठ गया। इस इंतजार में वह काफी कमज़ोर हो गया। देवी जब तप से उठी तो सिंह की दशा देखकर उन्हें उस पर बहुत दया आती है और माँ उसे अपना सवारी बना लेती हैं क्योंकि एक प्रकार से उसने भी तपस्या की थी। इसलिए देवी गौरी का वाहन बैल और सिंह दोनों ही हैं।
अष्टमी के दिन महिलाएं अपने सुहाग के लिए देवी मां को चुनरी भेंट करती हैं। देवी गौरी की पूजा का विधान भी पूर्ववत है अर्थात जिस प्रकार सप्तमी तिथि तक आपने मां की पूजा की है उसी प्रकार अष्टमी के दिन भी प्रत्येक दिन की तरह देवी की पंचोपचार सहित पूजा करते हैं।
माँ महागौरी का ध्यान, स्मरण, पूजन-आराधना भक्तों के लिए सर्वविध कल्याणकारी है। हमें सदैव इनका ध्यान करना चाहिए। इनकी कृपा से अलौकिक सिद्धियों की प्राप्ति होती है। मन को अनन्य भाव से एकनिष्ठ कर मनुष्य को सदैव इनके ही पादारविन्दों का ध्यान करना चाहिए।
पुराणों में माँ महागौरी की महिमा का प्रचुर आख्यान किया गया है। ये मनुष्य की वृत्तियों को सत् की ओर प्रेरित करके असत् का विनाश करती हैं। हमें प्रपत्तिभाव से सदैव इनका शरणागत बनना चाहिए।
या देवी सर्वभूतेषु माँ गौरी रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
माँ! सर्वत्र विराजमान और माँ गौरी के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। हे माँ, मुझे सुख-समृद्धि प्रदान करो।
( क्रमश: )
Sunday, April 2, 2017
बासंतिक नवरात्र 6
माँ कालरात्रि
माँ दुर्गाजी की सातवीं शक्ति कालरात्रि के नाम से जानी जाती हैं। दुर्गापूजा के सातवें दिन माँ कालरात्रि की उपासना का विधान है। इस दिन साधक का मन 'सहस्रार' चक्र में स्थित रहता है। इसके लिए ब्रह्मांड की समस्त सिद्धियों का द्वार खुलने लगता है।
सहस्रार चक्र में स्थित साधक का मन पूर्णतः माँ कालरात्रि के स्वरूप में अवस्थित रहता है। उनके साक्षात्कार से मिलने वाले पुण्य का वह भागी हो जाता है। उसके समस्त पापों-विघ्नों का नाश हो जाता है। उसे अक्षय पुण्य-लोकों की प्राप्ति होती है।
एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता |
लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्तशरीरिणी || वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टकभूषणा | वर्धन्मूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयन्करि ||
इनके शरीर का रंग घने अंधकार की तरह एकदम काला है। सिर के बाल बिखरे हुए हैं। गले में विद्युत की तरह चमकने वाली माला है। इनके तीन नेत्र हैं। ये तीनों नेत्र ब्रह्मांड के सदृश गोल हैं। इनसे विद्युत के समान चमकीली किरणें निःसृत होती रहती हैं।
माँ की नासिका के श्वास-प्रश्वास से अग्नि की भयंकर ज्वालाएँ निकलती रहती हैं। इनका वाहन गर्दभ (गदहा) है। ये ऊपर उठे हुए दाहिने हाथ की वरमुद्रा से सभी को वर प्रदान करती हैं। दाहिनी तरफ का नीचे वाला हाथ अभयमुद्रा में है। बाईं तरफ के ऊपर वाले हाथ में लोहे का काँटा तथा नीचे वाले हाथ में खड्ग (कटार) है।
माँ कालरात्रि का स्वरूप देखने में अत्यंत भयानक है, लेकिन ये सदैव शुभ फल ही देने वाली हैं। इसी कारण इनका एक नाम 'शुभंकारी' भी है। अतः इनसे भक्तों को किसी प्रकार भी भयभीत अथवा आतंकित होने की आवश्यकता नहीं है।
माँ कालरात्रि दुष्टों का विनाश करने वाली हैं। दानव, दैत्य, राक्षस, भूत, प्रेत आदि इनके स्मरण मात्र से ही भयभीत होकर भाग जाते हैं। ये ग्रह-बाधाओं को भी दूर करने वाली हैं। इनके उपासकों को अग्नि-भय, जल-भय, जंतु-भय, शत्रु-भय, रात्रि-भय आदि कभी नहीं होते। इनकी कृपा से वह सर्वथा भय-मुक्त हो जाता है।
माँ कालरात्रि के स्वरूप-विग्रह को अपने हृदय में अवस्थित करके मनुष्य को एकनिष्ठ भाव से उपासना करनी चाहिए। यम, नियम, संयम का उसे पूर्ण पालन करना चाहिए। मन, वचन, काया की पवित्रता रखनी चाहिए। वे शुभंकारी देवी हैं। उनकी उपासना से होने वाले शुभों की गणना नहीं की जा सकती।
हमें निरंतर उनका स्मरण, ध्यान और पूजा करना चाहिए।
नवरात्रि की सप्तमी के दिन माँ कालरात्रि की आराधना का विधान है। इनकी पूजा-अर्चना करने से सभी पापों से मुक्ति मिलती है व दुश्मनों का नाश होता है, तेज बढ़ता है। प्रत्येक सर्वसाधारण के लिए आराधना योग्य यह श्लोक सरल और स्पष्ट है। माँ जगदम्बे की भक्ति पाने के लिए इसे कंठस्थ कर नवरात्रि में सातवें दिन इसका जाप करना चाहिए।
या देवी सर्वभूतेषु माँ कालरात्रि रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
अर्थ : हे माँ! सर्वत्र विराजमान और कालरात्रि के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। या मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ।
( क्रमश: )
माँ दुर्गाजी की सातवीं शक्ति कालरात्रि के नाम से जानी जाती हैं। दुर्गापूजा के सातवें दिन माँ कालरात्रि की उपासना का विधान है। इस दिन साधक का मन 'सहस्रार' चक्र में स्थित रहता है। इसके लिए ब्रह्मांड की समस्त सिद्धियों का द्वार खुलने लगता है।
सहस्रार चक्र में स्थित साधक का मन पूर्णतः माँ कालरात्रि के स्वरूप में अवस्थित रहता है। उनके साक्षात्कार से मिलने वाले पुण्य का वह भागी हो जाता है। उसके समस्त पापों-विघ्नों का नाश हो जाता है। उसे अक्षय पुण्य-लोकों की प्राप्ति होती है।
एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता |
लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्तशरीरिणी || वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टकभूषणा | वर्धन्मूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयन्करि ||
इनके शरीर का रंग घने अंधकार की तरह एकदम काला है। सिर के बाल बिखरे हुए हैं। गले में विद्युत की तरह चमकने वाली माला है। इनके तीन नेत्र हैं। ये तीनों नेत्र ब्रह्मांड के सदृश गोल हैं। इनसे विद्युत के समान चमकीली किरणें निःसृत होती रहती हैं।
माँ की नासिका के श्वास-प्रश्वास से अग्नि की भयंकर ज्वालाएँ निकलती रहती हैं। इनका वाहन गर्दभ (गदहा) है। ये ऊपर उठे हुए दाहिने हाथ की वरमुद्रा से सभी को वर प्रदान करती हैं। दाहिनी तरफ का नीचे वाला हाथ अभयमुद्रा में है। बाईं तरफ के ऊपर वाले हाथ में लोहे का काँटा तथा नीचे वाले हाथ में खड्ग (कटार) है।
माँ कालरात्रि का स्वरूप देखने में अत्यंत भयानक है, लेकिन ये सदैव शुभ फल ही देने वाली हैं। इसी कारण इनका एक नाम 'शुभंकारी' भी है। अतः इनसे भक्तों को किसी प्रकार भी भयभीत अथवा आतंकित होने की आवश्यकता नहीं है।
माँ कालरात्रि दुष्टों का विनाश करने वाली हैं। दानव, दैत्य, राक्षस, भूत, प्रेत आदि इनके स्मरण मात्र से ही भयभीत होकर भाग जाते हैं। ये ग्रह-बाधाओं को भी दूर करने वाली हैं। इनके उपासकों को अग्नि-भय, जल-भय, जंतु-भय, शत्रु-भय, रात्रि-भय आदि कभी नहीं होते। इनकी कृपा से वह सर्वथा भय-मुक्त हो जाता है।
माँ कालरात्रि के स्वरूप-विग्रह को अपने हृदय में अवस्थित करके मनुष्य को एकनिष्ठ भाव से उपासना करनी चाहिए। यम, नियम, संयम का उसे पूर्ण पालन करना चाहिए। मन, वचन, काया की पवित्रता रखनी चाहिए। वे शुभंकारी देवी हैं। उनकी उपासना से होने वाले शुभों की गणना नहीं की जा सकती।
हमें निरंतर उनका स्मरण, ध्यान और पूजा करना चाहिए।
नवरात्रि की सप्तमी के दिन माँ कालरात्रि की आराधना का विधान है। इनकी पूजा-अर्चना करने से सभी पापों से मुक्ति मिलती है व दुश्मनों का नाश होता है, तेज बढ़ता है। प्रत्येक सर्वसाधारण के लिए आराधना योग्य यह श्लोक सरल और स्पष्ट है। माँ जगदम्बे की भक्ति पाने के लिए इसे कंठस्थ कर नवरात्रि में सातवें दिन इसका जाप करना चाहिए।
या देवी सर्वभूतेषु माँ कालरात्रि रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
अर्थ : हे माँ! सर्वत्र विराजमान और कालरात्रि के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। या मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ।
( क्रमश: )
Saturday, April 1, 2017
बासंतिक नवरात्र 5
माँ दुर्गा के छठे स्वरूप का नाम कात्यायनी है। उस दिन साधक का मन 'आज्ञा' चक्र में स्थित होता है। योगसाधना में इस आज्ञा चक्र का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। इस चक्र में स्थित मन वाला साधक माँ कात्यायनी के चरणों में अपना सर्वस्व निवेदित कर देता है। परिपूर्ण आत्मदान करने वाले ऐसे भक्तों को सहज भाव से माँ के दर्शन प्राप्त हो जाते हैं।
चन्द्रहासोज्ज्वलकरा शार्दूलवरवाहन |
कात्यायनी शुभं दद्याद्देवी दानवघातिनी ||
माँ का नाम कात्यायनी कैसे पड़ा इसकी भी एक कथा है- कत नामक एक प्रसिद्ध महर्षि थे। उनके पुत्र ऋषि कात्य हुए। इन्हीं कात्य के गोत्र में विश्वप्रसिद्ध महर्षि कात्यायन उत्पन्न हुए थे। इन्होंने भगवती पराम्बा की उपासना करते हुए बहुत वर्षों तक बड़ी कठिन तपस्या की थी। उनकी इच्छा थी माँ भगवती उनके घर पुत्री के रूप में जन्म लें। माँ भगवती ने उनकी यह प्रार्थना स्वीकार कर ली।
कुछ समय पश्चात जब दानव महिषासुर का अत्याचार पृथ्वी पर बढ़ गया तब भगवान ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों ने अपने-अपने तेज का अंश देकर महिषासुर के विनाश के लिए एक देवी को उत्पन्न किया। महर्षि कात्यायन ने सर्वप्रथम इनकी पूजा की। इसी कारण से यह कात्यायनी कहलाईं।
ऐसी भी कथा मिलती है कि ये महर्षि कात्यायन के वहाँ पुत्री रूप में उत्पन्न हुई थीं। आश्विन कृष्ण चतुर्दशी को जन्म लेकर शुक्त सप्तमी, अष्टमी तथा नवमी तक तीन दिन इन्होंने कात्यायन ऋषि की पूजा ग्रहण कर दशमी को महिषासुर का वध किया था।
माँ कात्यायनी अमोघ फलदायिनी हैं। भगवान कृष्ण को पतिरूप में पाने के लिए ब्रज की गोपियों ने इन्हीं की पूजा कालिन्दी-यमुना के तट पर की थी। ये ब्रजमंडल की अधिष्ठात्री देवी के रूप में प्रतिष्ठित हैं।
माँ कात्यायनी का स्वरूप अत्यंत चमकीला और भास्वर है। इनकी चार भुजाएँ हैं। माताजी का दाहिनी तरफ का ऊपरवाला हाथ अभयमुद्रा में तथा नीचे वाला वरमुद्रा में है। बाईं तरफ के ऊपरवाले हाथ में तलवार और नीचे वाले हाथ में कमल-पुष्प सुशोभित है। इनका वाहन सिंह है।
माँ कात्यायनी की भक्ति और उपासना द्वारा मनुष्य को बड़ी सरलता से अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चारों फलों की प्राप्ति हो जाती है। वह इस लोक में स्थित रहकर भी अलौकिक तेज और प्रभाव से युक्त हो जाता है।
नवरात्रि का छठा दिन माँ कात्यायनी की उपासना का दिन होता है। इनके पूजन से अद्भुत शक्ति का संचार होता है व दुश्मनों का संहार करने में ये सक्षम बनाती हैं। इनका ध्यान गोधुली बेला में करना होता है। प्रत्येक सर्वसाधारण के लिए आराधना योग्य यह श्लोक सरल और स्पष्ट है। माँ जगदम्बे की भक्ति पाने के लिए इसे कंठस्थ कर नवरात्रि में छठे दिन इसका जाप करना चाहिए।
या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥
अर्थ : हे माँ! सर्वत्र विराजमान और शक्ति -रूपिणी प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। या मैं
आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ।
इसके अतिरिक्त जिन कन्याओ के विवाह मे विलम्ब हो रहा हो, उन्हे इस दिन माँ कात्यायनी की उपासना अवश्य करनी चाहिए, जिससे उन्हे मनोवान्छित वर की प्राप्ति होती है।
विवाह के लिये कात्यायनी मन्त्र--
ॐ कात्यायनी महामाये महायोगिन्यधीश्वरि ! नंदगोपसुतम् देवि पतिम् मे कुरुते नम:।
माँ को जो सच्चे मन से याद करता है उसके रोग, शोक, संताप, भय आदि सर्वथा विनष्ट हो जाते हैं। जन्म-जन्मांतर के पापों को विनष्ट करने के लिए माँ की शरणागत होकर उनकी पूजा-उपासना के लिए तत्पर होना चाहिए।
चन्द्रहासोज्ज्वलकरा शार्दूलवरवाहन |
कात्यायनी शुभं दद्याद्देवी दानवघातिनी ||
माँ का नाम कात्यायनी कैसे पड़ा इसकी भी एक कथा है- कत नामक एक प्रसिद्ध महर्षि थे। उनके पुत्र ऋषि कात्य हुए। इन्हीं कात्य के गोत्र में विश्वप्रसिद्ध महर्षि कात्यायन उत्पन्न हुए थे। इन्होंने भगवती पराम्बा की उपासना करते हुए बहुत वर्षों तक बड़ी कठिन तपस्या की थी। उनकी इच्छा थी माँ भगवती उनके घर पुत्री के रूप में जन्म लें। माँ भगवती ने उनकी यह प्रार्थना स्वीकार कर ली।
कुछ समय पश्चात जब दानव महिषासुर का अत्याचार पृथ्वी पर बढ़ गया तब भगवान ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों ने अपने-अपने तेज का अंश देकर महिषासुर के विनाश के लिए एक देवी को उत्पन्न किया। महर्षि कात्यायन ने सर्वप्रथम इनकी पूजा की। इसी कारण से यह कात्यायनी कहलाईं।
ऐसी भी कथा मिलती है कि ये महर्षि कात्यायन के वहाँ पुत्री रूप में उत्पन्न हुई थीं। आश्विन कृष्ण चतुर्दशी को जन्म लेकर शुक्त सप्तमी, अष्टमी तथा नवमी तक तीन दिन इन्होंने कात्यायन ऋषि की पूजा ग्रहण कर दशमी को महिषासुर का वध किया था।
माँ कात्यायनी अमोघ फलदायिनी हैं। भगवान कृष्ण को पतिरूप में पाने के लिए ब्रज की गोपियों ने इन्हीं की पूजा कालिन्दी-यमुना के तट पर की थी। ये ब्रजमंडल की अधिष्ठात्री देवी के रूप में प्रतिष्ठित हैं।
माँ कात्यायनी का स्वरूप अत्यंत चमकीला और भास्वर है। इनकी चार भुजाएँ हैं। माताजी का दाहिनी तरफ का ऊपरवाला हाथ अभयमुद्रा में तथा नीचे वाला वरमुद्रा में है। बाईं तरफ के ऊपरवाले हाथ में तलवार और नीचे वाले हाथ में कमल-पुष्प सुशोभित है। इनका वाहन सिंह है।
माँ कात्यायनी की भक्ति और उपासना द्वारा मनुष्य को बड़ी सरलता से अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चारों फलों की प्राप्ति हो जाती है। वह इस लोक में स्थित रहकर भी अलौकिक तेज और प्रभाव से युक्त हो जाता है।
नवरात्रि का छठा दिन माँ कात्यायनी की उपासना का दिन होता है। इनके पूजन से अद्भुत शक्ति का संचार होता है व दुश्मनों का संहार करने में ये सक्षम बनाती हैं। इनका ध्यान गोधुली बेला में करना होता है। प्रत्येक सर्वसाधारण के लिए आराधना योग्य यह श्लोक सरल और स्पष्ट है। माँ जगदम्बे की भक्ति पाने के लिए इसे कंठस्थ कर नवरात्रि में छठे दिन इसका जाप करना चाहिए।
या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥
अर्थ : हे माँ! सर्वत्र विराजमान और शक्ति -रूपिणी प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। या मैं
आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ।
इसके अतिरिक्त जिन कन्याओ के विवाह मे विलम्ब हो रहा हो, उन्हे इस दिन माँ कात्यायनी की उपासना अवश्य करनी चाहिए, जिससे उन्हे मनोवान्छित वर की प्राप्ति होती है।
विवाह के लिये कात्यायनी मन्त्र--
ॐ कात्यायनी महामाये महायोगिन्यधीश्वरि ! नंदगोपसुतम् देवि पतिम् मे कुरुते नम:।
माँ को जो सच्चे मन से याद करता है उसके रोग, शोक, संताप, भय आदि सर्वथा विनष्ट हो जाते हैं। जन्म-जन्मांतर के पापों को विनष्ट करने के लिए माँ की शरणागत होकर उनकी पूजा-उपासना के लिए तत्पर होना चाहिए।
माँ कात्यायनी
Friday, March 31, 2017
बासंतिक नवरात्र 4
माँ स्कंदमाता
नवरात्रि का पाँचवाँ दिन स्कंदमाता की उपासना का दिन होता है। मोक्ष के द्वार खोलने वाली माता परम सुखदायी हैं। माँ अपने भक्तों की समस्त इच्छाओं की पूर्ति करती हैं।
सिंहासनगता नित्यं पद्माश्रितकरद्वया |
शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी ||
भगवान स्कंद 'कुमार कार्तिकेय' नाम से भी जाने जाते हैं। ये प्रसिद्ध देवासुर संग्राम में देवताओं के सेनापति बने थे। पुराणों में इन्हें कुमार और शक्ति कहकर इनकी महिमा का वर्णन किया गया है। इन्हीं भगवान स्कंद की माता होने के कारण माँ दुर्गाजी के इस स्वरूप को स्कंदमाता के नाम से जाना जाता है।
स्कंदमाता की चार भुजाएँ हैं। इनके दाहिनी तरफ की नीचे वाली भुजा, जो ऊपर की ओर उठी हुई है, उसमें कमल पुष्प है। बाईं तरफ की ऊपर वाली भुजा में वरमुद्रा में तथा नीचे वाली भुजा जो ऊपर की ओर उठी है उसमें भी कमल पुष्प ली हुई हैं। इनका वर्ण पूर्णतः शुभ्र है। ये कमल के आसन पर विराजमान रहती हैं। इसी कारण इन्हें पद्मासना देवी भी कहा जाता है। सिंह भी इनका वाहन है।
नवरात्रि-पूजन के पाँचवें दिन का शास्त्रों में पुष्कल महत्व बताया गया है। इस चक्र में अवस्थित मन वाले साधक की समस्त बाह्य क्रियाओं एवं चित्तवृत्तियों का लोप हो जाता है। वह विशुद्ध चैतन्य स्वरूप की ओर अग्रसर हो रहा होता है।
साधक का मन समस्त लौकिक, सांसारिक, मायिक बंधनों से विमुक्त होकर पद्मासना माँ स्कंदमाता के स्वरूप में पूर्णतः तल्लीन होता है। इस समय साधक को पूर्ण सावधानी के साथ उपासना की ओर अग्रसर होना चाहिए। उसे अपनी समस्त ध्यान-वृत्तियों को एकाग्र रखते हुए साधना के पथ पर आगे बढ़ना चाहिए।
माँ स्कंदमाता की उपासना से भक्त की समस्त इच्छाएँ पूर्ण हो जाती हैं। इस मृत्युलोक में ही उसे परम शांति और सुख का अनुभव होने लगता है। उसके लिए मोक्ष का द्वार स्वमेव सुलभ हो जाता है। स्कंदमाता की उपासना से बालरूप स्कंद भगवान की उपासना भी स्वमेव हो जाती है। यह विशेषता केवल इन्हीं को प्राप्त है, अतः साधक को स्कंदमाता की उपासना की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए।
सूर्यमंडल की अधिष्ठात्री देवी होने के कारण इनका उपासक अलौकिक तेज एवं कांति से संपन्न हो जाता है। एक अलौकिक प्रभामंडल अदृश्य भाव से सदैव उसके चतुर्दिक् परिव्याप्त रहता है। यह प्रभामंडल प्रतिक्षण उसके योगक्षेम का निर्वहन करता रहता है।
हमें एकाग्रभाव से मन को पवित्र रखकर माँ की शरण में आने का प्रयत्न करना चाहिए। इस घोर भवसागर के दुःखों से मुक्ति पाकर मोक्ष का मार्ग सुलभ बनाने का इससे उत्तम उपाय दूसरा नहीं है।
प्रत्येक सर्वसाधारण के लिए आराधना योग्य यह श्लोक सरल और स्पष्ट है। माँ जगदम्बे की भक्ति पाने के लिए इसे कंठस्थ कर नवरात्रि में पाँचवें दिन इसका जाप करना चाहिए।
या देवी सर्वभूतेषु माँ स्कंदमाता रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
अर्थ : हे माँ! सर्वत्र विराजमान और स्कंदमाता के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। या मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ। हे माँ, मुझे सब पापों से मुक्ति प्रदान करें। इस दिन साधक का मन 'विशुद्ध' चक्र में अवस्थित होता है। इनके विग्रह में भगवान स्कंदजी बालरूप में इनकी गोद में बैठे होते हैं।
(क्रमश:)
Thursday, March 30, 2017
बासंतिक नवरात्र 3
माँ कूष्मांडा
नवरात्र-पूजन के चौथे दिन कूष्माण्डा देवी के स्वरूप की ही उपासना की जाती है। इस दिन साधक का मन 'अदाहत' चक्र में अवस्थित होता है। अतः इस दिन उसे अत्यंत पवित्र और अचंचल मन से कूष्माण्डा देवी के स्वरूप को ध्यान में रखकर पूजा-उपासना के कार्य में लगना चाहिए।
जब सृष्टि का अस्तित्व नहीं था, तब इन्हीं देवी ने ब्रह्मांड की रचना की थी। अतः ये ही सृष्टि की आदि-स्वरूपा, आदिशक्ति हैं। इनका निवास सूर्यमंडल के भीतर के लोक में है। वहाँ निवास कर सकने की क्षमता और शक्ति केवल इन्हीं में है। इनके शरीर की कांति और प्रभा भी सूर्य के समान ही दैदीप्यमान हैं।
इनके तेज और प्रकाश से दसों दिशाएँ प्रकाशित हो रही हैं। ब्रह्मांड की सभी वस्तुओं और प्राणियों में अवस्थित तेज इन्हीं की छाया है। माँ की आठ भुजाएँ हैं। अतः ये अष्टभुजा देवी के नाम से भी विख्यात हैं। इनके सात हाथों में क्रमशः कमंडल, धनुष, बाण, कमल-पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र तथा गदा है। आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जपमाला है। इनका वाहन सिंह है।
श्लोक
सुरासंपूर्णकलशं रुधिराप्लुतमेव च |
दधाना हस्तपद्माभ्यां कूष्माण्डा शुभदास्तु मे ||
माँ कूष्माण्डा की उपासना से भक्तों के समस्त रोग-शोक मिट जाते हैं। इनकी भक्ति से आयु, यश, बल और आरोग्य की वृद्धि होती है। माँ कूष्माण्डा अत्यल्प सेवा और भक्ति से प्रसन्न होने वाली हैं। यदि मनुष्य सच्चे हृदय से इनका शरणागत बन जाए तो फिर उसे अत्यन्त सुगमता से परम पद की प्राप्ति हो सकती है।
विधि-विधान से माँ के भक्ति-मार्ग पर कुछ ही कदम आगे बढ़ने पर भक्त साधक को उनकी कृपा का सूक्ष्म अनुभव होने लगता है। यह दुःख स्वरूप संसार उसके लिए अत्यंत सुखद और सुगम बन जाता है। माँ की उपासना मनुष्य को सहज भाव से भवसागर से पार उतारने के लिए सर्वाधिक सुगम और श्रेयस्कर मार्ग है।
माँ कूष्माण्डा की उपासना मनुष्य को आधियों-व्याधियों से सर्वथा विमुक्त करके उसे सुख, समृद्धि और उन्नति की ओर ले जाने वाली है। अतः अपनी लौकिक, पारलौकिक उन्नति चाहने वालों को इनकी उपासना में सदैव तत्पर रहना चाहिए।
चतुर्थी के दिन माँ कूष्मांडा की आराधना की जाती है। इनकी उपासना से सिद्धियों में निधियों को प्राप्त कर समस्त रोग-शोक दूर होकर आयु-यश में वृद्धि होती है। प्रत्येक सर्वसाधारण के लिए आराधना योग्य यह श्लोक सरल और स्पष्ट है।
नवरात्रि में चतुर्थ दिन इसका जाप करना चाहिए।
या देवी सर्वभूतेषु माँ कूष्माण्डा रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
अर्थ : हे माँ! सर्वत्र विराजमान और कूष्माण्डा के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। या मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ। हे माँ, मुझे सब पापों से मुक्ति प्रदान करें।
अपनी मंद, हल्की हँसी द्वारा अंड अर्थात ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण इन्हें कूष्माण्डा देवी के रूप में पूजा जाता है। संस्कृत भाषा में कूष्माण्डा को कुम्हड़ा कहते हैं। बलियों में कुम्हड़े की बलि इन्हें सर्वाधिक प्रिय है। इस कारण से भी माँ कूष्माण्डा कहलाती हैं।
(क्रमश:)
नवरात्र-पूजन के चौथे दिन कूष्माण्डा देवी के स्वरूप की ही उपासना की जाती है। इस दिन साधक का मन 'अदाहत' चक्र में अवस्थित होता है। अतः इस दिन उसे अत्यंत पवित्र और अचंचल मन से कूष्माण्डा देवी के स्वरूप को ध्यान में रखकर पूजा-उपासना के कार्य में लगना चाहिए।
जब सृष्टि का अस्तित्व नहीं था, तब इन्हीं देवी ने ब्रह्मांड की रचना की थी। अतः ये ही सृष्टि की आदि-स्वरूपा, आदिशक्ति हैं। इनका निवास सूर्यमंडल के भीतर के लोक में है। वहाँ निवास कर सकने की क्षमता और शक्ति केवल इन्हीं में है। इनके शरीर की कांति और प्रभा भी सूर्य के समान ही दैदीप्यमान हैं।
इनके तेज और प्रकाश से दसों दिशाएँ प्रकाशित हो रही हैं। ब्रह्मांड की सभी वस्तुओं और प्राणियों में अवस्थित तेज इन्हीं की छाया है। माँ की आठ भुजाएँ हैं। अतः ये अष्टभुजा देवी के नाम से भी विख्यात हैं। इनके सात हाथों में क्रमशः कमंडल, धनुष, बाण, कमल-पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र तथा गदा है। आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जपमाला है। इनका वाहन सिंह है।
श्लोक
सुरासंपूर्णकलशं रुधिराप्लुतमेव च |
दधाना हस्तपद्माभ्यां कूष्माण्डा शुभदास्तु मे ||
माँ कूष्माण्डा की उपासना से भक्तों के समस्त रोग-शोक मिट जाते हैं। इनकी भक्ति से आयु, यश, बल और आरोग्य की वृद्धि होती है। माँ कूष्माण्डा अत्यल्प सेवा और भक्ति से प्रसन्न होने वाली हैं। यदि मनुष्य सच्चे हृदय से इनका शरणागत बन जाए तो फिर उसे अत्यन्त सुगमता से परम पद की प्राप्ति हो सकती है।
विधि-विधान से माँ के भक्ति-मार्ग पर कुछ ही कदम आगे बढ़ने पर भक्त साधक को उनकी कृपा का सूक्ष्म अनुभव होने लगता है। यह दुःख स्वरूप संसार उसके लिए अत्यंत सुखद और सुगम बन जाता है। माँ की उपासना मनुष्य को सहज भाव से भवसागर से पार उतारने के लिए सर्वाधिक सुगम और श्रेयस्कर मार्ग है।
माँ कूष्माण्डा की उपासना मनुष्य को आधियों-व्याधियों से सर्वथा विमुक्त करके उसे सुख, समृद्धि और उन्नति की ओर ले जाने वाली है। अतः अपनी लौकिक, पारलौकिक उन्नति चाहने वालों को इनकी उपासना में सदैव तत्पर रहना चाहिए।
चतुर्थी के दिन माँ कूष्मांडा की आराधना की जाती है। इनकी उपासना से सिद्धियों में निधियों को प्राप्त कर समस्त रोग-शोक दूर होकर आयु-यश में वृद्धि होती है। प्रत्येक सर्वसाधारण के लिए आराधना योग्य यह श्लोक सरल और स्पष्ट है।
नवरात्रि में चतुर्थ दिन इसका जाप करना चाहिए।
या देवी सर्वभूतेषु माँ कूष्माण्डा रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
अर्थ : हे माँ! सर्वत्र विराजमान और कूष्माण्डा के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। या मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ। हे माँ, मुझे सब पापों से मुक्ति प्रदान करें।
अपनी मंद, हल्की हँसी द्वारा अंड अर्थात ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण इन्हें कूष्माण्डा देवी के रूप में पूजा जाता है। संस्कृत भाषा में कूष्माण्डा को कुम्हड़ा कहते हैं। बलियों में कुम्हड़े की बलि इन्हें सर्वाधिक प्रिय है। इस कारण से भी माँ कूष्माण्डा कहलाती हैं।
(क्रमश:)
Wednesday, March 29, 2017
बासंतिक नवरात्र 2
माँ ब्रह्मचारिणी
नवरात्र के दूसरे दिन माँ ब्रह्मचारिणी की पूजा-अर्चना की जाती है। साधक इस दिन अपने मन को माँ के चरणों में लगाते हैं। ब्रह्म का अर्थ है तपस्या और चारिणी यानी आचरण करने वाली। इस प्रकार ब्रह्मचारिणी का अर्थ हुआ तप का आचरण करने वाली। इनके दाहिने हाथ में जप की माला एवं बाएँ हाथ में कमण्डल रहता है।
माँ ब्रह्मचारिणी का श्लोक-
दधाना करपद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलु |
देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा ||
इस दिन साधक कुंडलिनी शक्ति को जागृत करने के लिए भी साधना करते हैं। जिससे उनका जीवन सफल हो सके और अपने सामने आने वाली किसी भी प्रकार की बाधा का सामना आसानी से कर सके।
माँ ब्रह्मचारिणी देवी की कृपा से उसे सर्वत्र सिद्धि और विजय की प्राप्ति होती है। दुर्गा पूजा के दूसरे दिन इन्हीं के स्वरूप की उपासना की जाती है। इस दिन साधक का मन ‘स्वाधिष्ठान ’चक्र में शिथिल होता है। इस चक्र में अवस्थित मनवाला योगी उनकी कृपा और भक्ति प्राप्त करता है।
इस दिन ऐसी कन्याओं का पूजन किया जाता है कि जिनका विवाह तय हो गया है लेकिन अभी शादी नहीं हुई है। इन्हें अपने घर बुलाकर पूजन के पश्चात भोजन कराकर वस्त्र, पात्र आदि भेंट किए जाते हैं।
जगदम्बे की भक्ति पाने के लिए इसे कंठस्थ कर नवरात्रि में द्वितीय दिन इसका जाप करना चाहिए।
या देवी सर्वभूतेषु माँ ब्रह्मचारिणी रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
अर्थ : हे माँ! सर्वत्र विराजमान और ब्रह्मचारिणी के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। या मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ।
माँ चन्द्रघंटा
माँ दुर्गाजी की उपासना में तीसरे दिन की पूजा का अत्यधिक महत्व है और इस दिन इन्हीं के विग्रह का पूजन-आराधन किया जाता है। इस दिन साधक का मन 'मणिपूर' चक्र में प्रविष्ट होता है।
माँ चंद्रघंटा की कृपा से अलौकिक वस्तुओं के दर्शन होते हैं, दिव्य सुगंधियों का अनुभव होता है तथा विविध प्रकार की दिव्य ध्वनियाँ सुनाई देती हैं। ये क्षण साधक के लिए अत्यंत सावधान रहने के होते हैं।
पिण्डजप्रवरारुढा चण्डकोपास्त्रकैर्युता |
प्रसादं तनुते मह्यं चन्द्रघण्टेति विश्रुता ||
माँ का यह स्वरूप परम शांतिदायक और कल्याणकारी है। इनके मस्तक में घंटे का आकार का अर्धचंद्र है, इसी कारण से इन्हें चंद्रघंटा देवी कहा जाता है। इनके शरीर का रंग स्वर्ण के समान चमकीला है। इनके दस हाथ हैं। इनके दसों हाथों में खड्ग आदि शस्त्र तथा बाण आदि अस्त्र विभूषित हैं। इनका वाहन सिंह है। इनकी मुद्रा युद्ध के लिए उद्यत रहने की होती है।
मां चंद्रघंटा की कृपा से साधक के समस्त पाप और बाधाएँ विनष्ट हो जाती हैं। इनकी आराधना सद्यः फलदायी है। माँ भक्तों के कष्ट का निवारण शीघ्र ही कर देती हैं। इनका उपासक सिंह की तरह पराक्रमी और निर्भय हो जाता है। इनके घंटे की ध्वनि सदा अपने भक्तों को प्रेतबाधा से रक्षा करती है। इनका ध्यान करते ही शरणागत की रक्षा के लिए इस घंटे की ध्वनि निनादित हो उठती है।
माँ का स्वरूप अत्यंत सौम्यता एवं शांति से परिपूर्ण रहता है। इनकी आराधना से वीरता-निर्भयता के साथ ही सौम्यता एवं विनम्रता का विकास होकर मुख, नेत्र तथा संपूर्ण काया में कांति-गुण की वृद्धि होती है। स्वर में दिव्य, अलौकिक माधुर्य का समावेश हो जाता है। माँ चंद्रघंटा के भक्त और उपासक जहाँ भी जाते हैं लोग उन्हें देखकर शांति और सुख का अनुभव करते हैं।
माँ के आराधक के शरीर से दिव्य प्रकाशयुक्त परमाणुओं का अदृश्य विकिरण होता रहता है। यह दिव्य क्रिया साधारण चक्षुओं से दिखाई नहीं देती, किन्तु साधक और उसके संपर्क में आने वाले लोग इस बात का अनुभव भली-भाँति करते रहते हैं।
हमें चाहिए कि अपने मन, वचन, कर्म एवं काया को विहित विधि-विधान के अनुसार पूर्णतः परिशुद्ध एवं पवित्र करके माँ चंद्रघंटा के शरणागत होकर उनकी उपासना-आराधना में तत्पर हों। उनकी उपासना से हम समस्त सांसारिक कष्टों से विमुक्त होकर सहज ही परमपद के अधिकारी बन सकते हैं।
हमें निरंतर उनके पवित्र विग्रह को ध्यान में रखते हुए साधना की ओर अग्रसर होने का प्रयत्न करना चाहिए। उनका ध्यान हमारे इहलोक और परलोक दोनों के लिए परम कल्याणकारी और सद्गति देने वाला है।
प्रत्येक सर्वसाधारण के लिए आराधना योग्य यह श्लोक सरल और स्पष्ट है।
(क्रमश:)
नवरात्र के दूसरे दिन माँ ब्रह्मचारिणी की पूजा-अर्चना की जाती है। साधक इस दिन अपने मन को माँ के चरणों में लगाते हैं। ब्रह्म का अर्थ है तपस्या और चारिणी यानी आचरण करने वाली। इस प्रकार ब्रह्मचारिणी का अर्थ हुआ तप का आचरण करने वाली। इनके दाहिने हाथ में जप की माला एवं बाएँ हाथ में कमण्डल रहता है।
माँ ब्रह्मचारिणी का श्लोक-
दधाना करपद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलु |
देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा ||
इस दिन साधक कुंडलिनी शक्ति को जागृत करने के लिए भी साधना करते हैं। जिससे उनका जीवन सफल हो सके और अपने सामने आने वाली किसी भी प्रकार की बाधा का सामना आसानी से कर सके।
माँ ब्रह्मचारिणी देवी की कृपा से उसे सर्वत्र सिद्धि और विजय की प्राप्ति होती है। दुर्गा पूजा के दूसरे दिन इन्हीं के स्वरूप की उपासना की जाती है। इस दिन साधक का मन ‘स्वाधिष्ठान ’चक्र में शिथिल होता है। इस चक्र में अवस्थित मनवाला योगी उनकी कृपा और भक्ति प्राप्त करता है।
इस दिन ऐसी कन्याओं का पूजन किया जाता है कि जिनका विवाह तय हो गया है लेकिन अभी शादी नहीं हुई है। इन्हें अपने घर बुलाकर पूजन के पश्चात भोजन कराकर वस्त्र, पात्र आदि भेंट किए जाते हैं।
जगदम्बे की भक्ति पाने के लिए इसे कंठस्थ कर नवरात्रि में द्वितीय दिन इसका जाप करना चाहिए।
या देवी सर्वभूतेषु माँ ब्रह्मचारिणी रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
अर्थ : हे माँ! सर्वत्र विराजमान और ब्रह्मचारिणी के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। या मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ।
माँ चन्द्रघंटा
माँ दुर्गाजी की उपासना में तीसरे दिन की पूजा का अत्यधिक महत्व है और इस दिन इन्हीं के विग्रह का पूजन-आराधन किया जाता है। इस दिन साधक का मन 'मणिपूर' चक्र में प्रविष्ट होता है।
माँ चंद्रघंटा की कृपा से अलौकिक वस्तुओं के दर्शन होते हैं, दिव्य सुगंधियों का अनुभव होता है तथा विविध प्रकार की दिव्य ध्वनियाँ सुनाई देती हैं। ये क्षण साधक के लिए अत्यंत सावधान रहने के होते हैं।
पिण्डजप्रवरारुढा चण्डकोपास्त्रकैर्युता |
प्रसादं तनुते मह्यं चन्द्रघण्टेति विश्रुता ||
माँ का यह स्वरूप परम शांतिदायक और कल्याणकारी है। इनके मस्तक में घंटे का आकार का अर्धचंद्र है, इसी कारण से इन्हें चंद्रघंटा देवी कहा जाता है। इनके शरीर का रंग स्वर्ण के समान चमकीला है। इनके दस हाथ हैं। इनके दसों हाथों में खड्ग आदि शस्त्र तथा बाण आदि अस्त्र विभूषित हैं। इनका वाहन सिंह है। इनकी मुद्रा युद्ध के लिए उद्यत रहने की होती है।
मां चंद्रघंटा की कृपा से साधक के समस्त पाप और बाधाएँ विनष्ट हो जाती हैं। इनकी आराधना सद्यः फलदायी है। माँ भक्तों के कष्ट का निवारण शीघ्र ही कर देती हैं। इनका उपासक सिंह की तरह पराक्रमी और निर्भय हो जाता है। इनके घंटे की ध्वनि सदा अपने भक्तों को प्रेतबाधा से रक्षा करती है। इनका ध्यान करते ही शरणागत की रक्षा के लिए इस घंटे की ध्वनि निनादित हो उठती है।
माँ का स्वरूप अत्यंत सौम्यता एवं शांति से परिपूर्ण रहता है। इनकी आराधना से वीरता-निर्भयता के साथ ही सौम्यता एवं विनम्रता का विकास होकर मुख, नेत्र तथा संपूर्ण काया में कांति-गुण की वृद्धि होती है। स्वर में दिव्य, अलौकिक माधुर्य का समावेश हो जाता है। माँ चंद्रघंटा के भक्त और उपासक जहाँ भी जाते हैं लोग उन्हें देखकर शांति और सुख का अनुभव करते हैं।
माँ के आराधक के शरीर से दिव्य प्रकाशयुक्त परमाणुओं का अदृश्य विकिरण होता रहता है। यह दिव्य क्रिया साधारण चक्षुओं से दिखाई नहीं देती, किन्तु साधक और उसके संपर्क में आने वाले लोग इस बात का अनुभव भली-भाँति करते रहते हैं।
हमें चाहिए कि अपने मन, वचन, कर्म एवं काया को विहित विधि-विधान के अनुसार पूर्णतः परिशुद्ध एवं पवित्र करके माँ चंद्रघंटा के शरणागत होकर उनकी उपासना-आराधना में तत्पर हों। उनकी उपासना से हम समस्त सांसारिक कष्टों से विमुक्त होकर सहज ही परमपद के अधिकारी बन सकते हैं।
हमें निरंतर उनके पवित्र विग्रह को ध्यान में रखते हुए साधना की ओर अग्रसर होने का प्रयत्न करना चाहिए। उनका ध्यान हमारे इहलोक और परलोक दोनों के लिए परम कल्याणकारी और सद्गति देने वाला है।
प्रत्येक सर्वसाधारण के लिए आराधना योग्य यह श्लोक सरल और स्पष्ट है।
(क्रमश:)
Tuesday, March 28, 2017
बासंतिक नवरात्रि और नववर्ष की बधाई
*माता शैलपुत्री*
आज चैत्र शुक्लपक्ष प्रतिपदा, दिन बुधवार,
दिनांक 29 मार्च 2017 से नव संवत्सर, भारतीय
नववर्ष आरम्भ हो रहा हैं। आज से ही बासंतिक
नवरात्रि का भी शुभारम्भ हो रहा है। इस उपलक्ष
में सभी भारतवासियों को हार्दिक शुभकामनाएं।
माता जगदम्बा आज आपके घर अपने नौ स्वरूपों
सहित (क्रमश:) पधार रही हैं। उनका श्रद्धापूर्वक
वैदिक रीति से पूजन-अर्चन कीजिए । मां के प्रथम
रूप का ध्यान करते हुए कलश स्थापना कीजिए ।
भक्तिपूर्वक माता के प्रथम रूप शैलपुत्री पूजन करते हुए भजन- कीर्तन कीजिए।
श्री दुर्गा सप्तशती में लिखा है-
प्रथमं शैलपुत्री द्वितीयं ब्रह्मचारिणी ।
तृतीयं चन्द्रघन्टेति कूष्मान्डेति चतुर्थकम्।।
जो लोग नवरात्रि उपवास रखते हैं वेआज से ही आरम्भ करेंगे। माता आपके परिवार पर सदैव अपनी
कृपादृष्टि बनाए रखे।
*जय माता दी*
Friday, March 24, 2017
ओंकार सदाशिव और हमारी आस्था 7
(पूर्ववत् से आगे)
एकादश ज्योर्तिलिंग श्री केदारनाथ
यह ज्योर्तिलिंग भारतभूमि के उत्तराखण्ड प्रांत के रुद्रप्रयाग जनपद में हिमालय की पर्वत श्रंखलाओं पर स्थित है. यहां का प्राकृतिक सौन्दर्य अतुलनीय है.
स्कन्द पुराण में लिखा है कि एक बार केदार क्षेत्र के विषय में जब पार्वती जी ने शिव से पूछा तब भगवान शिव ने उन्हें बताया कि केदार क्षेत्र उन्हें अत्यंत प्रिय है. वे यहां सदा अपने गणों के साथ निवास करते हैं. इस क्षेत्र में वे तब से रहते हैं जब उन्होंने सृष्टि की रचना के लिए ब्रह्मा का रूप धारण किया था.
स्कन्द पुराण में इस स्थान की महिमा का एक वर्णन यह भी मिलता है कि एक बहेलिया था जिस हिरण का मांस खाना अत्यंत प्रिय था. एक बार यह शिकार की तलाश में केदार क्षेत्र में आया. पूरे दिन भटकने के बाद भी उसे शिकार नहीं मिला. संध्या के समय नारद मुनि इस क्षेत्र में आये तो दूर से बहेलिया उन्हें हिरण समझकर उन पर वाण चलाने के लिए तैयार हुआ.
जब तक वह वाण चलाता सूर्य पूरी तरह डूब गया. अंधेरा होने पर उसने देखा कि एक सर्प मेंढ़क का निगल रहा है. मृत होने के बाद मेढ़क शिव रूप में परिवर्तित हो गया.
इसी प्रकार बहेलिया ने देखा कि एक हिरण को सिंह मार रहा है. मृत हिरण शिव गणों के साथ शिवलोक जा रहा है. इस अद्भुत दृश्य को देखकर बहेलिया हैरान था. इसी समय नारद मुनि ब्राह्मण वेष में बहेलिया के समक्ष उपस्थित हुए.
बहेलिया ने नारद मुनि से इन अद्भुत दृश्यों के विषय में पूछा. नारद मुनि ने उसे समझाया कि यह अत्यंत पवित्र क्षेत्र है. इस स्थान पर मृत होने पर पशु-पक्षियों को भी मुक्ति मिल जाती है. इसके बाद बहेलिया को अपने पाप कर्मों का स्मरण हो आया कि किस प्रकार उसने पशु-पक्षियों की हत्या की है. बहेलिया ने नारद मुनि से अपनी मुक्ति का उपाय पूछा. नारद मुनि से शिव का ज्ञान प्राप्त करके बहेलिया केदार क्षेत्र में रहकर शिव उपासना में लीन हो गया. मृत्यु पश्चात उसे शिव लोक में स्थान प्राप्त हुआ.
केदारनाथ ज्योर्तिलिंग की कथा के विषय में शिव पुराण में वर्णित है कि नर और नारयण नाम के दो भाईयों ने भगवान शिव की पार्थिव मूर्ति बनाकर उनकी पूजा एवं ध्यान में लगे रहते. इन दोनों भाईयों की भक्तिपूर्ण तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव इनके समक्ष प्रकट हुए. भगवान शिव ने इनसे वरदान मांगने के लिए कहा तो जन कल्याण कि भावना से इन्होंने शिव से वरदान मांगा कि वह इस क्षेत्र में जनकल्याण हेतु सदा वर्तमान रहें. इनकी प्रार्थना पर भगवान शंकर ज्योर्तिलिंग के रूप में केदार क्षेत्र में प्रकट हुए.
केदारनाथ से जुड़ी पाण्डवों की कथा
शिव पुराण में लिखा है कि महाभारत के युद्ध के पश्चात पाण्डवों को इस बात का प्रायश्चित हो रहा था कि उनके हाथों उनके अपने भाई-बंधुओं की हत्या हुई है. वे इस पाप से मुक्ति पाना चाहते थे. इसका समाधान जब इन्होंने वेद व्यास जी से पूछा तो उन्होंने कहा कि बंधुओं की हत्या का पाप तभी मिट सकता है जब शिव इस पाप से मुक्ति प्रदान करेंगे. शिव पाण्डवों से अप्रसन्न थे अत: पाण्डव जब विश्वानाथ के दर्शन के लिए काशी पहुंचे तब वे वहां शंकर प्रत्यक्ष प्रकट नहीं हुए. शिव को ढ़ूढते हुए तब पांचों पाण्डव केदारनाथ पहुंच गये.
पाण्डवों को आया देखकर शिव ने भैंस का रूप धारण कर लिया और भैस के झुण्ड में शामिल हो गये . शिव की पहचान करने के लिए भीम एक गुफा के मुख के पास पैर फैलाकर खड़ा हो गया. सभी भैस उनके पैर के बीच से होकर निकलçने लगे लेकिन भैस बने शिव ने पैर के बीच से जाना स्वीकार नहीं किया इससे पाण्डवों ने शिव को पहचान लिया.
इसके बाद शिव वहां भूमि में विलीन होने लगे तब भैंस बने भगवान शंकर को भीम ने पीठ की तरह से पकड़ लिया. भगवान शंकर पाण्डवों की भक्ति एवं दृढ़ निश्चय को देखकर प्रकट हुए तथा उन्हें पापों से मुक्त कर दिया. इस स्थान पर आज भी द्रौपदी के साथ पांचों पाण्डवों की पूजा होती है. यहां शिव की पूजा भैस के पृष्ठ भाग के रूप में तभी से चली आ रही है.
द्वादश ज्योर्तिलिंग श्री घुश्मेश्वर महादेव
यह ज्योर्तिलिंग महाराष्ट्र प्रांत में औरंगाबाद के नजदीक दौलताबाद से 11 किलोमीटर दूर घृष्णेश्वर महादेव का मंदिर स्थित है। यह बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। कुछ लोग इसे घुश्मेश्वर के नाम से भी पुकारते हैं। बौद्ध भिक्षुओं द्वारा निर्मित एलोरा की प्रसिद्ध गुफाएँ इस मंदिर के समीप ही स्थित हैं। इस मंदिर का निर्माण देवी अहिल्याबाई होल्कर ने करवाया था। शहर से दूर स्थित यह मंदिर सादगी से परिपूर्ण है। द्वादश ज्योतिर्लिंगों में यह अंतिम ज्योतिर्लिंग है। इसे घुश्मेश्वर, घुसृणेश्वर या घृष्णेश्वर भी कहा जाता है। यह महाराष्ट्र प्रदेश में दौलताबाद से बारह मीर दूर वेरुलगाँव के पास स्थित है।
दक्षिण देश के देवगिरि पर्वत के निकट सुकर्मा नामक ब्राह्मण अपनी पति परायण पत्नी सुदेश के साथ रहता था। वे दोनों शिव भक्त थे किंतु सन्तान न होने से चिंतित रहते थे। पत्नी के आग्रह पर उसके पत्नी की बहन घुस्मा के साथ विवहा किया जो परम शिव भक्त थी। शिव कृपा से उसे एक पुत्र धन की प्राप्ति हुई। इससे सुदेश कार् ईष्या होने लगी और उसने अवसर पा कर सौत के बेटे की हत्या कर दी। भगवान शिवजी की कृपा से बालक जी उठा तथा घुस्मा की प्रार्थना पर वहां शिवजी सदैव वास करने का वरदान दिया और वहां पर वास करने लगे और घुश्मेश्वर के नाम से प्रसिध्द हुएं उस तालाब का नाम भी तबसे शिवालय हो गया।
इस ज्योतिर्लिंग के विषय में पुराणों में यह कथा वर्णित है- दक्षिण देश में देवगिरिपर्वत के निकट सुधर्मा नामक एक अत्यंत तेजस्वी तपोनिष्ट ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम सुदेहा था दोनों में परस्पर बहुत प्रेम था। किसी प्रकार का कोई कष्ट उन्हें नहीं था। लेकिन उन्हें कोई संतान नहीं थी।
ज्योतिष-गणना से पता चला कि सुदेहा के गर्भ से संतानोत्पत्ति हो ही नहीं सकती। सुदेहा संतान की बहुत ही इच्छुक थी। उसने सुधर्मा से अपनी छोटी बहन से दूसरा विवाह करने का आग्रह किया।
पहले तो सुधर्मा को यह बात नहीं जँची। लेकिन अंत में उन्हें पत्नी की जिद के आगे झुकना ही पड़ा। वे उसका आग्रह टाल नहीं पाए। वे अपनी पत्नी की छोटी बहन घुश्मा को ब्याह कर घर ले आए। घुश्मा अत्यंत विनीत और सदाचारिणी स्त्री थी। वह भगवान् शिव की अनन्य भक्ता थी। प्रतिदिन एक सौ एक पार्थिव शिवलिंग बनाकर हृदय की सच्ची निष्ठा के साथ उनका पूजन करती थी।
भगवान शिवजी की कृपा से थोड़े ही दिन बाद उसके गर्भ से अत्यंत सुंदर और स्वस्थ बालक ने जन्म लिया। बच्चे के जन्म से सुदेहा और घुश्मा दोनों के ही आनंद का पार न रहा। दोनों के दिन बड़े आराम से बीत रहे थे। लेकिन न जाने कैसे थोड़े ही दिनों बाद सुदेहा के मन में एक कुविचार ने जन्म ले लिया। वह सोचने लगी, मेरा तो इस घर में कुछ है नहीं। सब कुछ घुश्मा का है। अब तक सुधर्मा के मन का कुविचार रूपी अंकुर एक विशाल वृक्ष का रूप ले चुका था। अंततः एक दिन उसने घुश्मा के युवा पुत्र को रात में सोते समय मार डाला। उसके शव को ले जाकर उसने उसी तालाब में फेंक दिया जिसमें घुश्मा प्रतिदिन पार्थिव शिवलिंगों को फेंका करती थी
मेरे पति पर भी उसने अधिकार जमा लिया। संतान भी उसी की है। यह कुविचार धीरे-धीरे उसके मन में बढ़ने लगा। इधर घुश्मा का वह बालक भी बड़ा हो रहा था। धीरे-धीरे वह जवान हो गया। उसका विवाह भी हो गया। सुबह होते ही सबको इस बात का पता लगा। पूरे घर में कुहराम मच गया। सुधर्मा और उसकी पुत्रवधू दोनों सिर पीटकर फूट-फूटकर रोने लगे। लेकिन घुश्मा नित्य की भाँति भगवान् शिव की आराधना में तल्लीन रही। जैसे कुछ हुआ ही न हो। पूजा समाप्त करने के बाद वह पार्थिव शिवलिंगों को तालाब में छोड़ने के लिए चल पड़ी। जब वह तालाब से लौटने लगी उसी समय उसका प्यारा लाल तालाब के भीतर से निकलकर आता हुआ दिखलाई पड़ा। वह सदा की भाँति आकर घुश्मा के चरणों पर गिर पड़ा।
जैसे कहीं आस-पास से ही घूमकर आ रहा हो। इसी समय भगवान् शिव भी वहाँ प्रकट होकर घुश्मा से वर माँगने को कहने लगे। वह सुदेहा की घनौनी करतूत से अत्यंत क्रुद्ध हो उठे थे। अपने त्रिशूल द्वारा उसका गला काटने को उद्यत दिखलाई दे रहे थे। घुश्मा ने हाथ जोड़कर भगवान् शिव से कहा- 'प्रभो! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मेरी उस अभागिन बहन को क्षमा कर दें। निश्चित ही उसने अत्यंत जघन्य पाप किया है किंतु आपकी दया से मुझे मेरा पुत्र वापस मिल गया। अब आप उसे क्षमा करें और प्रभो!
मेरी एक प्रार्थना और है, लोक-कल्याण के लिए आप
इस स्थान पर सर्वदा के लिए निवास करें।' भगवान् शिव ने उसकी ये दोनों बातें स्वीकार कर लीं। ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट होकर वह वहीं निवास करने लगे। सती शिवभक्त घुश्मा के आराध्य होने के कारण वे यहाँ घुश्मेश्वर महादेव के नाम से विख्यात हुए। घुश्मेश्वर-ज्योतिर्लिंग की महिमा पुराणों में बहुत विस्तार से वर्णित की गई है। इनका दर्शन लोक-परलोक दोनों के लिए अमोघ फलदाई है.
घुश्मेश्वर मंदिर, औरंगाबाद
इस प्रकार भगवान सदाशिव ओंकार अपने बारह ज्योर्तिलिंगों के रूप में विश्व कल्याण करते हैं. भारत की यह पावन भूमि भगवान शिव की कृपा प्राप्त करती रहती है. भगवान सदाशिव इस कलयुग में सभी जीवों सुरक्षित जीवन प्रदान करते हैं. इनकी सब पर सदैव कृपा बनी रहे तथा सभी भक्ति का प्रसाद पाते रहें. *ऊँ नम: शिवाय*
एकादश ज्योर्तिलिंग श्री केदारनाथ
यह ज्योर्तिलिंग भारतभूमि के उत्तराखण्ड प्रांत के रुद्रप्रयाग जनपद में हिमालय की पर्वत श्रंखलाओं पर स्थित है. यहां का प्राकृतिक सौन्दर्य अतुलनीय है.
स्कन्द पुराण में लिखा है कि एक बार केदार क्षेत्र के विषय में जब पार्वती जी ने शिव से पूछा तब भगवान शिव ने उन्हें बताया कि केदार क्षेत्र उन्हें अत्यंत प्रिय है. वे यहां सदा अपने गणों के साथ निवास करते हैं. इस क्षेत्र में वे तब से रहते हैं जब उन्होंने सृष्टि की रचना के लिए ब्रह्मा का रूप धारण किया था.
स्कन्द पुराण में इस स्थान की महिमा का एक वर्णन यह भी मिलता है कि एक बहेलिया था जिस हिरण का मांस खाना अत्यंत प्रिय था. एक बार यह शिकार की तलाश में केदार क्षेत्र में आया. पूरे दिन भटकने के बाद भी उसे शिकार नहीं मिला. संध्या के समय नारद मुनि इस क्षेत्र में आये तो दूर से बहेलिया उन्हें हिरण समझकर उन पर वाण चलाने के लिए तैयार हुआ.
जब तक वह वाण चलाता सूर्य पूरी तरह डूब गया. अंधेरा होने पर उसने देखा कि एक सर्प मेंढ़क का निगल रहा है. मृत होने के बाद मेढ़क शिव रूप में परिवर्तित हो गया.
इसी प्रकार बहेलिया ने देखा कि एक हिरण को सिंह मार रहा है. मृत हिरण शिव गणों के साथ शिवलोक जा रहा है. इस अद्भुत दृश्य को देखकर बहेलिया हैरान था. इसी समय नारद मुनि ब्राह्मण वेष में बहेलिया के समक्ष उपस्थित हुए.
बहेलिया ने नारद मुनि से इन अद्भुत दृश्यों के विषय में पूछा. नारद मुनि ने उसे समझाया कि यह अत्यंत पवित्र क्षेत्र है. इस स्थान पर मृत होने पर पशु-पक्षियों को भी मुक्ति मिल जाती है. इसके बाद बहेलिया को अपने पाप कर्मों का स्मरण हो आया कि किस प्रकार उसने पशु-पक्षियों की हत्या की है. बहेलिया ने नारद मुनि से अपनी मुक्ति का उपाय पूछा. नारद मुनि से शिव का ज्ञान प्राप्त करके बहेलिया केदार क्षेत्र में रहकर शिव उपासना में लीन हो गया. मृत्यु पश्चात उसे शिव लोक में स्थान प्राप्त हुआ.
केदारनाथ ज्योर्तिलिंग की कथा के विषय में शिव पुराण में वर्णित है कि नर और नारयण नाम के दो भाईयों ने भगवान शिव की पार्थिव मूर्ति बनाकर उनकी पूजा एवं ध्यान में लगे रहते. इन दोनों भाईयों की भक्तिपूर्ण तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव इनके समक्ष प्रकट हुए. भगवान शिव ने इनसे वरदान मांगने के लिए कहा तो जन कल्याण कि भावना से इन्होंने शिव से वरदान मांगा कि वह इस क्षेत्र में जनकल्याण हेतु सदा वर्तमान रहें. इनकी प्रार्थना पर भगवान शंकर ज्योर्तिलिंग के रूप में केदार क्षेत्र में प्रकट हुए.
केदारनाथ से जुड़ी पाण्डवों की कथा
शिव पुराण में लिखा है कि महाभारत के युद्ध के पश्चात पाण्डवों को इस बात का प्रायश्चित हो रहा था कि उनके हाथों उनके अपने भाई-बंधुओं की हत्या हुई है. वे इस पाप से मुक्ति पाना चाहते थे. इसका समाधान जब इन्होंने वेद व्यास जी से पूछा तो उन्होंने कहा कि बंधुओं की हत्या का पाप तभी मिट सकता है जब शिव इस पाप से मुक्ति प्रदान करेंगे. शिव पाण्डवों से अप्रसन्न थे अत: पाण्डव जब विश्वानाथ के दर्शन के लिए काशी पहुंचे तब वे वहां शंकर प्रत्यक्ष प्रकट नहीं हुए. शिव को ढ़ूढते हुए तब पांचों पाण्डव केदारनाथ पहुंच गये.
पाण्डवों को आया देखकर शिव ने भैंस का रूप धारण कर लिया और भैस के झुण्ड में शामिल हो गये . शिव की पहचान करने के लिए भीम एक गुफा के मुख के पास पैर फैलाकर खड़ा हो गया. सभी भैस उनके पैर के बीच से होकर निकलçने लगे लेकिन भैस बने शिव ने पैर के बीच से जाना स्वीकार नहीं किया इससे पाण्डवों ने शिव को पहचान लिया.
इसके बाद शिव वहां भूमि में विलीन होने लगे तब भैंस बने भगवान शंकर को भीम ने पीठ की तरह से पकड़ लिया. भगवान शंकर पाण्डवों की भक्ति एवं दृढ़ निश्चय को देखकर प्रकट हुए तथा उन्हें पापों से मुक्त कर दिया. इस स्थान पर आज भी द्रौपदी के साथ पांचों पाण्डवों की पूजा होती है. यहां शिव की पूजा भैस के पृष्ठ भाग के रूप में तभी से चली आ रही है.
द्वादश ज्योर्तिलिंग श्री घुश्मेश्वर महादेव
यह ज्योर्तिलिंग महाराष्ट्र प्रांत में औरंगाबाद के नजदीक दौलताबाद से 11 किलोमीटर दूर घृष्णेश्वर महादेव का मंदिर स्थित है। यह बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। कुछ लोग इसे घुश्मेश्वर के नाम से भी पुकारते हैं। बौद्ध भिक्षुओं द्वारा निर्मित एलोरा की प्रसिद्ध गुफाएँ इस मंदिर के समीप ही स्थित हैं। इस मंदिर का निर्माण देवी अहिल्याबाई होल्कर ने करवाया था। शहर से दूर स्थित यह मंदिर सादगी से परिपूर्ण है। द्वादश ज्योतिर्लिंगों में यह अंतिम ज्योतिर्लिंग है। इसे घुश्मेश्वर, घुसृणेश्वर या घृष्णेश्वर भी कहा जाता है। यह महाराष्ट्र प्रदेश में दौलताबाद से बारह मीर दूर वेरुलगाँव के पास स्थित है।
दक्षिण देश के देवगिरि पर्वत के निकट सुकर्मा नामक ब्राह्मण अपनी पति परायण पत्नी सुदेश के साथ रहता था। वे दोनों शिव भक्त थे किंतु सन्तान न होने से चिंतित रहते थे। पत्नी के आग्रह पर उसके पत्नी की बहन घुस्मा के साथ विवहा किया जो परम शिव भक्त थी। शिव कृपा से उसे एक पुत्र धन की प्राप्ति हुई। इससे सुदेश कार् ईष्या होने लगी और उसने अवसर पा कर सौत के बेटे की हत्या कर दी। भगवान शिवजी की कृपा से बालक जी उठा तथा घुस्मा की प्रार्थना पर वहां शिवजी सदैव वास करने का वरदान दिया और वहां पर वास करने लगे और घुश्मेश्वर के नाम से प्रसिध्द हुएं उस तालाब का नाम भी तबसे शिवालय हो गया।
इस ज्योतिर्लिंग के विषय में पुराणों में यह कथा वर्णित है- दक्षिण देश में देवगिरिपर्वत के निकट सुधर्मा नामक एक अत्यंत तेजस्वी तपोनिष्ट ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम सुदेहा था दोनों में परस्पर बहुत प्रेम था। किसी प्रकार का कोई कष्ट उन्हें नहीं था। लेकिन उन्हें कोई संतान नहीं थी।
ज्योतिष-गणना से पता चला कि सुदेहा के गर्भ से संतानोत्पत्ति हो ही नहीं सकती। सुदेहा संतान की बहुत ही इच्छुक थी। उसने सुधर्मा से अपनी छोटी बहन से दूसरा विवाह करने का आग्रह किया।
पहले तो सुधर्मा को यह बात नहीं जँची। लेकिन अंत में उन्हें पत्नी की जिद के आगे झुकना ही पड़ा। वे उसका आग्रह टाल नहीं पाए। वे अपनी पत्नी की छोटी बहन घुश्मा को ब्याह कर घर ले आए। घुश्मा अत्यंत विनीत और सदाचारिणी स्त्री थी। वह भगवान् शिव की अनन्य भक्ता थी। प्रतिदिन एक सौ एक पार्थिव शिवलिंग बनाकर हृदय की सच्ची निष्ठा के साथ उनका पूजन करती थी।
भगवान शिवजी की कृपा से थोड़े ही दिन बाद उसके गर्भ से अत्यंत सुंदर और स्वस्थ बालक ने जन्म लिया। बच्चे के जन्म से सुदेहा और घुश्मा दोनों के ही आनंद का पार न रहा। दोनों के दिन बड़े आराम से बीत रहे थे। लेकिन न जाने कैसे थोड़े ही दिनों बाद सुदेहा के मन में एक कुविचार ने जन्म ले लिया। वह सोचने लगी, मेरा तो इस घर में कुछ है नहीं। सब कुछ घुश्मा का है। अब तक सुधर्मा के मन का कुविचार रूपी अंकुर एक विशाल वृक्ष का रूप ले चुका था। अंततः एक दिन उसने घुश्मा के युवा पुत्र को रात में सोते समय मार डाला। उसके शव को ले जाकर उसने उसी तालाब में फेंक दिया जिसमें घुश्मा प्रतिदिन पार्थिव शिवलिंगों को फेंका करती थी
मेरे पति पर भी उसने अधिकार जमा लिया। संतान भी उसी की है। यह कुविचार धीरे-धीरे उसके मन में बढ़ने लगा। इधर घुश्मा का वह बालक भी बड़ा हो रहा था। धीरे-धीरे वह जवान हो गया। उसका विवाह भी हो गया। सुबह होते ही सबको इस बात का पता लगा। पूरे घर में कुहराम मच गया। सुधर्मा और उसकी पुत्रवधू दोनों सिर पीटकर फूट-फूटकर रोने लगे। लेकिन घुश्मा नित्य की भाँति भगवान् शिव की आराधना में तल्लीन रही। जैसे कुछ हुआ ही न हो। पूजा समाप्त करने के बाद वह पार्थिव शिवलिंगों को तालाब में छोड़ने के लिए चल पड़ी। जब वह तालाब से लौटने लगी उसी समय उसका प्यारा लाल तालाब के भीतर से निकलकर आता हुआ दिखलाई पड़ा। वह सदा की भाँति आकर घुश्मा के चरणों पर गिर पड़ा।
जैसे कहीं आस-पास से ही घूमकर आ रहा हो। इसी समय भगवान् शिव भी वहाँ प्रकट होकर घुश्मा से वर माँगने को कहने लगे। वह सुदेहा की घनौनी करतूत से अत्यंत क्रुद्ध हो उठे थे। अपने त्रिशूल द्वारा उसका गला काटने को उद्यत दिखलाई दे रहे थे। घुश्मा ने हाथ जोड़कर भगवान् शिव से कहा- 'प्रभो! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मेरी उस अभागिन बहन को क्षमा कर दें। निश्चित ही उसने अत्यंत जघन्य पाप किया है किंतु आपकी दया से मुझे मेरा पुत्र वापस मिल गया। अब आप उसे क्षमा करें और प्रभो!
मेरी एक प्रार्थना और है, लोक-कल्याण के लिए आप
इस स्थान पर सर्वदा के लिए निवास करें।' भगवान् शिव ने उसकी ये दोनों बातें स्वीकार कर लीं। ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट होकर वह वहीं निवास करने लगे। सती शिवभक्त घुश्मा के आराध्य होने के कारण वे यहाँ घुश्मेश्वर महादेव के नाम से विख्यात हुए। घुश्मेश्वर-ज्योतिर्लिंग की महिमा पुराणों में बहुत विस्तार से वर्णित की गई है। इनका दर्शन लोक-परलोक दोनों के लिए अमोघ फलदाई है.
घुश्मेश्वर मंदिर, औरंगाबाद
इस प्रकार भगवान सदाशिव ओंकार अपने बारह ज्योर्तिलिंगों के रूप में विश्व कल्याण करते हैं. भारत की यह पावन भूमि भगवान शिव की कृपा प्राप्त करती रहती है. भगवान सदाशिव इस कलयुग में सभी जीवों सुरक्षित जीवन प्रदान करते हैं. इनकी सब पर सदैव कृपा बनी रहे तथा सभी भक्ति का प्रसाद पाते रहें. *ऊँ नम: शिवाय*
Sunday, March 19, 2017
मन अाइ गयो वृन्दावन होरी में.
होली के रंग महोत्सव के समापन पर पुन:
इस रंगोत्सव की शुभ कामनाएं. अवध और
ब्रज मण्डल में होली का पर्व एक सप्ताह तक
मनाया जाता है. इसलिए समापन पर विशेष-
मन अाइ गयो वृन्दावन होरी में.
मन यहीं बसो वृन्दावन होरी में.
सब पुष्प-लता मुसकाय रहे हैं.
सब मिलिकै गले लगाय रहे हैं.
अब लागि रहे मन भावन होरी में...
सब नर- नारी मुख दिखैं रंगे.
सब लागि रहे हिय प्रेम पगे.
मन घंटी बाजैं घनन-घनन होरी में...
अब चहुं दिसि सर-सर रंग चलै.
अब सबके मुख हाथन रंग मलैं.
है बरसि रहा रंग ज्यों सावन होरी में...
अब ढोलक, मिरदंग है बाजि रही.
अब गोरी थापों पर मिलि नाचि रही.
झांझ बजै अब झनन-झनन होरी में...
अब चहुं ओर रंग की धार दिखै.
ऊपर से लाठिन की मार दिखै.
सब भाजि छिपैं घर औ कानन होरी में...
नर यहां सबै तो श्याम दिखैं.
सबके उर में घनश्याम दिखैं.
अब नारिन में राधा दिखें पावन होरी में...
- राजेश शुक्ला छन्दक
इस रंगोत्सव की शुभ कामनाएं. अवध और
ब्रज मण्डल में होली का पर्व एक सप्ताह तक
मनाया जाता है. इसलिए समापन पर विशेष-
मन अाइ गयो वृन्दावन होरी में.
मन यहीं बसो वृन्दावन होरी में.
सब पुष्प-लता मुसकाय रहे हैं.
सब मिलिकै गले लगाय रहे हैं.
अब लागि रहे मन भावन होरी में...
सब नर- नारी मुख दिखैं रंगे.
सब लागि रहे हिय प्रेम पगे.
मन घंटी बाजैं घनन-घनन होरी में...
अब चहुं दिसि सर-सर रंग चलै.
अब सबके मुख हाथन रंग मलैं.
है बरसि रहा रंग ज्यों सावन होरी में...
अब ढोलक, मिरदंग है बाजि रही.
अब गोरी थापों पर मिलि नाचि रही.
झांझ बजै अब झनन-झनन होरी में...
अब चहुं ओर रंग की धार दिखै.
ऊपर से लाठिन की मार दिखै.
सब भाजि छिपैं घर औ कानन होरी में...
नर यहां सबै तो श्याम दिखैं.
सबके उर में घनश्याम दिखैं.
अब नारिन में राधा दिखें पावन होरी में...
- राजेश शुक्ला छन्दक
Thursday, March 16, 2017
कर्म हित पग उठे
ईंटें सिर पर रखे
पांव डगमग उठे.
आस मन में लिए
कर्म हित पग उठे.
ध्यान तन का नहीं
वह चला जा रहा.
ईंट, गारे में सब कुछ
है गला जा रहा.
सिर बालों से गिर बूंद
मोती सम है बनी.
पीर दिल में जो है
आज उसमें सनी.
बोझ जीवन का थामे
पांव डगमग उठे.
आस मन में लिए
कर्म हित पग उठे.
भानु अंम्बर में धधक
अग्नि सम वह जले.
नीचे धरनी बिचारी
तपन से ही गले.
मध्य में देह भीतर
छुधा को समेटे हुए.
विधना की सौगात
निज तन लपेटे हुए.
भाग्य के निर्णय पर
पांव डगमग उठे.
आस मन में लिए
कर्म हित पग उठे.
देह लगती है जर्जर
पर दधीचि की अस्थियां.
छोड़ दीं दूर पीछे
अपनी वो बस्तियां.
झोपड़ी किस्मत में थी
आज उसमें बस रहा.
भाग्य को ठेंगा दिखा
अपना तन कस रहा.
छत अपनी हो कब
पांव डगमग उठे.
आस मन में लिए
कर्म हित पग उठे.
Tuesday, March 14, 2017
ओंकार सदाशिव और हमारी आस्था6
(पूर्ववत् से आगे)
नवम् ज्योर्तिलिंग श्री विश्वनाथ
यह ज्योर्तिलिंग भारत भूमि के उत्तर प्रदेश प्रांत के वाराणसी जनपद में जगत् पावनी गंगा नदी के तट पर स्थित है. यहां पर बृहस्पित देव ने भगवान शिव की प्रार्थना की थी. उनकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर सदाशिव यहां ज्योर्तिलिंग रूप में प्रकट हुए.
काशी विश्वनाथ मंदिर बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यह मंदिर पिछले कई हजारों वर्षों से वाराणसी में स्थित है। काशी विश्वनाथ मंदिर का हिंदू धर्म में एक विशिष्ट स्थान है। ऐसा माना जाता है कि एक बार इस मंदिर के दर्शन करने और पवित्र गंगा में स्नान कर लेने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस मंदिर में दर्शन करने के लिए आदि शंकराचार्य , सन्त एकनाथ
रामकृष्ण परमहंस , स्वामी विवेकानंद, महर्षि दयानंद , गोस्वामी तुलसीदास सभी का आगमन हुआ हैं। यहिपर सन्त एकनाथजीने वारकरी सम्प्रदायका महान ग्रन्थ श्रीएकनाथी भागवत लिखकर पुरा किया और काशिनरेश तथा विद्वतजनोद्वारा उस ग्रन्थ कि हाथी पर से शोभायात्रा खुब धुमधामसे निकाली गयी।महाशिवरात्रि की मध्य रात्रि में प्रमुख मंदिरों से भव्य शोभा यात्रा ढोल नगाड़े इत्यादि के साथ बाबा विश्वनाथ जी के मंदिर तक जाती है।
वर्तमान मंदिर का निर्माण महारानी
अहिल्या बाई होल्कर द्वारा सन 1780 में करवाया गया था। बाद में महाराजा रंजीत सिंह द्वारा 1853 में 1000 कि.ग्रा शुद्ध सोने द्वारा बनवाया गया था।
हिन्दू धर्म में कहते हैं कि प्रलयकाल में भी इसका लोप नहीं होता। उस समय भगवान शंकर इसे अपने त्रिशूल पर धारण कर लेते हैं और सृष्टि काल आने पर इसे नीचे उतार देते हैं। यही नहीं, आदि सृष्टि स्थली भी यहीं भूमि बतलायी जाती है। इसी स्थान पर भगवान विष्णु ने सृष्टि उत्पन्न करने का कामना से तपस्या करके आशुतोष को प्रसन्न किया था और फिर उनके शयन करने पर उनके नाभि-कमल से ब्रह्मा उत्पन्न हुए, जिन्होने सारे की रचना की। अगस्त्य मुनि ने भी विश्वेश्वर की बड़ी आराधना की थी और इन्हीं की अर्चना से श्रीवशिष्ठजी तीनों लोकों में पुजित हुए तथा राजर्षि विश्वामित्र ब्रह्मर्षि कहलाये।
सर्वतीर्थमयी एवं सर्वसंतापहारिणी मोक्षदायिनी काशी की महिमा ऐसी है कि यहां प्राणत्याग करने से ही मुक्ति मिल जाती है। भगवान भोलानाथ मरते हुए प्राणी के कान में तारक-मंत्र का उपदेश करते हैं, जिससे वह आवगमन से छुट जाता है, चाहे मृत-प्राणी कोई भी क्यों न हो। मतस्यपुराण का मत है कि जप, ध्यान और ज्ञान से रहित एवंम दुखों परिपीड़ित जनों के लिये काशीपुरी ही एकमात्र गति है। विश्वेश्वर के आनंद-कानन में पांच मुख्य तीर्थ हैं:-
दशाश्वेमघ, लोलार्ककुण्ड, बिन्दुमाधव, केशव और मणिकर्णिका. इन्हीं से युक्त यह अविमुक्त क्षेत्र कहा जाता है
कहते हैं कि एक बार ब्रह्मा और विष्णु में बहस हो गयी थी कि कौन बड़ा है। तब शिव जी वहां प्रकाश लिंग के रूप में प्रकट हुए थे और ब्रह्मा जी अपने हंस पर बैठ ऊपरी छोर ढूंढने निकले और विष्णु जी वराह रूप में निचला छोर। विष्णु जी ने स्वीकार किया कि मैं अंतिम छोर न ढूंढ पाया किन्तु ब्रह्मा जी ने झूठ कहा कि मैंने खोज लिया। तब शिव जी एक और ज्योतिर्लिंग रूप में प्रकट हुए और ब्रह्मा को श्राप दिया कि उनकी पूजा न होगी क्योंकि स्वयं को पूजित बनाने झूठ बोला था ।
यहीं पास में मणिकर्णिका मंदिर है जो सती माता का शक्तिपीठ है ।
यह भी एक कथा है कि शिव जी ने यह स्थल अपने त्रिशूल पर उठा रखा है और इसे ब्रह्मा की सृष्टि से पृथक कर दिया था। जब प्रलय होती है तो शिव जी इसे त्रिशूल पर रखते हैं और नए संसार में दुबारा अपने स्थान पर स्थापित कर हैं ।
एक और कथा है कि जब शिव जी ब्रह्मा जी पर क्रुद्ध हुए तो काल भैरव को प्रकट किया जिन्होने ब्रह्मा जी का एक मुख काट दिया। यह ब्रह्महत्या हुई और कटा हुआ मुख काल भैरव से जुड़ गया। उन्होंने बहुत प्रयास किये किन्तु ब्रह्मह्त्या अलग न होती थी। फिर कल भैरव ने काशी आकर गंगा स्नान किया और पाप मुक्त हुए । मंदिर प्रांगण में ज्ञानवापी नामक कुआं है । कहते हैं आक्रमण के समय पुजारी शिवलिंग को बचाने के लिए उन्हें लेकर कुँए में कूद गए थे।
दशम् ज्योर्तिलिंग श्री त्र्यम्बकेश्वर
त्र्यम्बकेश्वर ज्योर्तिलिंग मन्दिर महाराष्ट्र-प्रांत के नासिक जिले में हैं यहां के निकटवर्ती ब्रह्म गिरि नामक पर्वत से गोदावरी नदी का उद्गम है। इन्हीं पुण्य गोदावरी के उद्गम-स्थान के समीप स्थित त्रयम्बकेश् भगवान की भी बड़ी महिमा हैं
गौतम ऋषि तथा गोदावरी के प्रार्थनानुसार भगवान शिव इस स्थान में वास करने की कृपा की और त्र्यम्बकेश्वर नाम से विख्यात हुए। मंदिर के अंदर एक छोटे से गङ्ढे में तीन छोटे-छोटे लिंग है, ब्रह्मा, विष्णु और शिव- इन तीनों देवों के प्रतीक माने जाते हैं। शिवपुराण के ब्रह्मगिरि पर्वत के ऊपर जाने के लिये चौड़ी-चौड़ी सात सौ सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। इन सीढ़ियों पर चढ़ने के बाद 'रामकुण्ड' और 'लष्मणकुण्ड' मिलते हैं और शिखर के ऊपर पहुँचने पर गोमुख से निकलती हुई भगवती गोदावरी के दर्शन होते हैं।
विशेषता
त्रयंबकेश्वर मन्दिर
त्र्यंबकेश्वरज्योर्तिलिंग में ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों ही विराजित हैं यही इस ज्योतिर्लिंग की सबसे बड़ी विशेषता है। अन्य सभी ज्योतिर्लिंगों में केवल भगवान शिव ही विराजित हैं।
निर्माण
गोदावरी नदी के किनारे स्थित त्र्यंबकेश्वर मंदिर काले पत्थरों से बना है। मंदिर का स्थापत्य अद्भुत है। इस मंदिर ke panchakroshi me कालसर्प शांति, त्रिपिंडी विधि और नारायण नागबलि की पूजा संपन्न होती है। जिन्हें भक्तजन अलग-अलग मुराद पूरी होने के लिए करवाते हैं।
इस प्राचीन मंदिर का पुनर्निर्माण तीसरे पेशवा बालाजी अर्थात नाना साहब पेशवा ने करवाया था। इस मंदिर का जीर्णोद्धार 1755 में शुरू हुआ था और 31 साल के लंबे समय के बाद 1786 में जाकर पूरा हुआ। कहा जाता है कि इस भव्य मंदिर के निर्माण में करीब 16 लाख रुपए खर्च किए गए थे, जो उस समय काफी बड़ी रकम मानी जाती थी।
मंदिर
गाँव के अंदर कुछ दूर पैदल चलने के बाद मंदिर का मुख्य द्वार नजर आने लगता है। त्र्यंबकेश्वर मंदिर की भव्य इमारत सिंधु-आर्य शैली का उत्कृष्ट नमूना है। मंदिर के अंदर गर्भगृह में प्रवेश करने के बाद शिवलिंग की केवल आर्घा दिखाई देती है, लिंग नहीं। गौर से देखने पर अर्घा के अंदर एक-एक इंच के तीन लिंग दिखाई देते हैं। इन लिंगों को त्रिदेव- ब्रह्मा-विष्णु और महेश का अवतार माना जाता है। भोर के समय होने वाली पूजा के बाद इस अर्घा पर चाँदी का पंचमुखी मुकुट चढ़ा दिया जाता है।
स्थिति
त्र्यंबकेश्वर मंदिर और गाँव ब्रह्मगिरि नामक पहाड़ी की तलहटी में स्थित है। इस गिरि को शिव का साक्षात रूप माना जाता है। इसी पर्वत पर पवित्र गोदावरी नदी का उद्गमस्थल है। कहा जाता है-
कथा
‘प्राचीनकाल में त्र्यंबक गौतम ऋषि की तपोभूमि थी। अपने ऊपर लगे गोहत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए गौतम ऋषि ने कठोर तप कर शिव से गंगा को यहाँ अवतरित करने का वरदान माँगा। फलस्वरूप दक्षिण की गंगा अर्थात गोदावरी नदी का उद्गम हुआ।’ -दंत कथा
गोदावरी के उद्गम के साथ ही गौतम ऋषि के अनुनय-विनय के उपरांत शिवजी ने इस मंदिर में विराजमान होना स्वीकार कर लिया। तीन नेत्रों वाले शिवशंभु के यहाँ विराजमान होने के कारण इस जगह को त्र्यंबक (तीन नेत्रों वाले) कहा जाने लगा। उज्जैन और ओंकारेश्वर की ही तरह त्र्यंबकेश्वर महाराज को इस गाँव का राजा माना जाता है, इसलिए हर सोमवार को त्र्यंबकेश्वर के राजा अपनी प्रजा का हाल जानने के लिए नगर भ्रमण के लिए निकलते हैं।
पौराणिक कथा
इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना के विषय में शिवपुराण में यह कथा वर्णित है-
एक बार महर्षि गौतम के तपोवन में रहने वाले ब्राह्मणों की पत्नियाँ किसी बात पर उनकी पत्नी अहिल्या से नाराज हो गईं। उन्होंने अपने पतियों को ऋषि गौतम का अपकार करने के लिए प्रेरित किया। उन ब्राह्मणों ने इसके निमित्त भगवान् श्रीगणेशजी की आराधना की।
उनकी आराधना से प्रसन्न हो गणेशजी ने प्रकट होकर उनसे वर माँगने को कहा उन ब्राह्मणों ने कहा- 'प्रभो! यदि आप हम पर प्रसन्न हैं तो किसी प्रकार ऋषि गौतम को इस आश्रम से बाहर निकाल दें।' उनकी यह बात सुनकर गणेशजी ने उन्हें ऐसा वर माँगने के लिए समझाया। किंतु वे अपने आग्रह पर अटल रहे।
अंततः गणेशजी को विवश होकर उनकी बात माननी पड़ी। अपने भक्तों का मन रखने के लिए वे एक दुर्बल गाय का रूप धारण करके ऋषि गौतम के खेत में जाकर रहने लगे। गाय को फसल चरते देखकर ऋषि बड़ी नरमी के साथ हाथ में तृण लेकर उसे हाँकने के लिए लपके। उन तृणों का स्पर्श होते ही वह गाय वहीं मरकर गिर पड़ी। अब तो बड़ा हाहाकार मचा।
सारे ब्राह्मण एकत्र हो गो-हत्यारा कहकर ऋषि गौतम की भर्त्सना करने लगे। ऋषि गौतम इस घटना से बहुत आश्चर्यचकित और दुःखी थे। अब उन सारे ब्राह्मणों ने कहा कि तुम्हें यह आश्रम छोड़कर अन्यत्र कहीं दूर चले जाना चाहिए। गो-हत्यारे के निकट रहने से हमें भी पाप लगेगा। विवश होकर ऋषि गौतम अपनी पत्नी अहिल्या के साथ वहाँ से एक कोस दूर जाकर रहने लगे। किंतु उन ब्राह्मणों ने वहाँ भी उनका रहना दूभर कर दिया। वे कहने लगे- 'गो-हत्या के कारण तुम्हें अब वेद-पाठ और यज्ञादि के कार्य करने का कोई अधिकार नहीं रह गया।' अत्यंत अनुनय भाव से ऋषि गौतम ने उन ब्राह्मणों से प्रार्थना की कि आप लोग मेरे प्रायश्चित और उद्धार का कोई उपाय बताएँ।
तब उन्होंने कहा- 'गौतम! तुम अपने पाप को सर्वत्र सबको बताते हुए तीन बार पूरी पृथ्वी की परिक्रमा करो। फिर लौटकर यहाँ एक महीने तक व्रत करो। इसके बाद 'ब्रह्मगिरी' की 101 परिक्रमा करने के बाद तुम्हारी शुद्धि होगी अथवा यहाँ गंगाजी को लाकर उनके जल से स्नान करके एक करोड़ पार्थिव शिवलिंगों से शिवजी की आराधना करो। इसके बाद पुनः गंगाजी में स्नान करके इस ब्रह्मगीरि की 11 बार परिक्रमा करो। फिर सौ घड़ों के पवित्र जल से पार्थिव शिवलिंगों को स्नान कराने से तुम्हारा उद्धार होगा।
ब्राह्मणों के कथनानुसार महर्षि गौतम वे सारे कार्य पूरे करके पत्नी के साथ पूर्णतः तल्लीन होकर भगवान शिव की आराधना करने लगे। इससे प्रसन्न हो भगवान शिव ने प्रकट होकर उनसे वर माँगने को कहा। महर्षि गौतम ने उनसे कहा- 'भगवान् मैं यही चाहता हूँ कि आप मुझे गो-हत्या के पाप से मुक्त कर दें।' भगवान् शिव ने कहा- 'गौतम ! तुम सर्वथा निष्पाप हो। गो-हत्या का अपराध तुम पर छल पूर्वक लगाया गया था। छल पूर्वक ऐसा करवाने वाले तुम्हारे आश्रम के ब्राह्मणों को मैं दण्ड देना चाहता हूँ।'
इस पर महर्षि गौतम ने कहा कि प्रभु! उन्हीं के निमित्त से तो मुझे आपका दर्शन प्राप्त हुआ है। अब उन्हें मेरा परमहित समझकर उन पर आप क्रोध न करें।' बहुत से ऋषियों, मुनियों और देव गणों ने वहाँ एकत्र हो गौतम की बात का अनुमोदन करते हुए भगवान् शिव से सदा वहाँ निवास करने की प्रार्थना की। वे उनकी बात मानकर वहाँ त्र्यम्बक ज्योतिर्लिंग के नाम से स्थित हो गए। गौतमजी द्वारा लाई गई गंगाजी भी वहाँ पास में गोदावरी नाम से प्रवाहित होने लगीं। यह ज्योतिर्लिंग समस्त पुण्यों को प्रदान करने वाला है।
उत्सव
इस भ्रमण के समय त्र्यंबकेश्वर महाराज के पंचमुखी सोने के मुखौटे को पालकी में बैठाकर गाँव में घुमाया जाता है। फिर कुशावर्त तीर्थ स्थित घाट पर स्नान कराया जाता है। इसके बाद मुखौटे को वापस मंदिर में लाकर हीरेजड़ित स्वर्ण मुकुट पहनाया जाता है। यह पूरा दृश्य त्र्यंबक महाराज के राज्याभिषेक-सा महसूस होता है। इस यात्रा को देखना बेहद अलौकिक अनुभव है।
‘कुशावर्त तीर्थ की जन्मकथा काफी रोचक है। कहते हैं ब्रह्मगिरि पर्वत से गोदावरी नदी बार-बार लुप्त हो जाती थी। गोदावरी के पलायन को रोकने के लिए गौतम ऋषि ने एक कुशा की मदद लेकर गोदावरी को बंधन में बाँध दिया। उसके बाद से ही इस कुंड में हमेशा लबालब पानी रहता है। इस कुंड को ही कुशावर्त तीर्थ के नाम से जाना जाता है। कुंभ स्नान के समय शैव अखाड़े इसी कुंड में शाही स्नान करते हैं।’- दंत कथा
शिवरात्रि और सावन सोमवार के दिन त्र्यंबकेश्वर मंदिर में भक्तों का ताँता लगा रहता है। भक्त भोर के समय स्नान करके अपने आराध्य के दर्शन करते हैं। यहाँ कालसर्प योग और नारायण नागबलि नामक खास पूजा-अर्चना भी होती है, जिसके कारण यहाँ साल भर लोग आते रहते हैं.
(क्रमश:)
नवम् ज्योर्तिलिंग श्री विश्वनाथ
यह ज्योर्तिलिंग भारत भूमि के उत्तर प्रदेश प्रांत के वाराणसी जनपद में जगत् पावनी गंगा नदी के तट पर स्थित है. यहां पर बृहस्पित देव ने भगवान शिव की प्रार्थना की थी. उनकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर सदाशिव यहां ज्योर्तिलिंग रूप में प्रकट हुए.
काशी विश्वनाथ मंदिर बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यह मंदिर पिछले कई हजारों वर्षों से वाराणसी में स्थित है। काशी विश्वनाथ मंदिर का हिंदू धर्म में एक विशिष्ट स्थान है। ऐसा माना जाता है कि एक बार इस मंदिर के दर्शन करने और पवित्र गंगा में स्नान कर लेने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस मंदिर में दर्शन करने के लिए आदि शंकराचार्य , सन्त एकनाथ
रामकृष्ण परमहंस , स्वामी विवेकानंद, महर्षि दयानंद , गोस्वामी तुलसीदास सभी का आगमन हुआ हैं। यहिपर सन्त एकनाथजीने वारकरी सम्प्रदायका महान ग्रन्थ श्रीएकनाथी भागवत लिखकर पुरा किया और काशिनरेश तथा विद्वतजनोद्वारा उस ग्रन्थ कि हाथी पर से शोभायात्रा खुब धुमधामसे निकाली गयी।महाशिवरात्रि की मध्य रात्रि में प्रमुख मंदिरों से भव्य शोभा यात्रा ढोल नगाड़े इत्यादि के साथ बाबा विश्वनाथ जी के मंदिर तक जाती है।
वर्तमान मंदिर का निर्माण महारानी
अहिल्या बाई होल्कर द्वारा सन 1780 में करवाया गया था। बाद में महाराजा रंजीत सिंह द्वारा 1853 में 1000 कि.ग्रा शुद्ध सोने द्वारा बनवाया गया था।
हिन्दू धर्म में कहते हैं कि प्रलयकाल में भी इसका लोप नहीं होता। उस समय भगवान शंकर इसे अपने त्रिशूल पर धारण कर लेते हैं और सृष्टि काल आने पर इसे नीचे उतार देते हैं। यही नहीं, आदि सृष्टि स्थली भी यहीं भूमि बतलायी जाती है। इसी स्थान पर भगवान विष्णु ने सृष्टि उत्पन्न करने का कामना से तपस्या करके आशुतोष को प्रसन्न किया था और फिर उनके शयन करने पर उनके नाभि-कमल से ब्रह्मा उत्पन्न हुए, जिन्होने सारे की रचना की। अगस्त्य मुनि ने भी विश्वेश्वर की बड़ी आराधना की थी और इन्हीं की अर्चना से श्रीवशिष्ठजी तीनों लोकों में पुजित हुए तथा राजर्षि विश्वामित्र ब्रह्मर्षि कहलाये।
सर्वतीर्थमयी एवं सर्वसंतापहारिणी मोक्षदायिनी काशी की महिमा ऐसी है कि यहां प्राणत्याग करने से ही मुक्ति मिल जाती है। भगवान भोलानाथ मरते हुए प्राणी के कान में तारक-मंत्र का उपदेश करते हैं, जिससे वह आवगमन से छुट जाता है, चाहे मृत-प्राणी कोई भी क्यों न हो। मतस्यपुराण का मत है कि जप, ध्यान और ज्ञान से रहित एवंम दुखों परिपीड़ित जनों के लिये काशीपुरी ही एकमात्र गति है। विश्वेश्वर के आनंद-कानन में पांच मुख्य तीर्थ हैं:-
दशाश्वेमघ, लोलार्ककुण्ड, बिन्दुमाधव, केशव और मणिकर्णिका. इन्हीं से युक्त यह अविमुक्त क्षेत्र कहा जाता है
कहते हैं कि एक बार ब्रह्मा और विष्णु में बहस हो गयी थी कि कौन बड़ा है। तब शिव जी वहां प्रकाश लिंग के रूप में प्रकट हुए थे और ब्रह्मा जी अपने हंस पर बैठ ऊपरी छोर ढूंढने निकले और विष्णु जी वराह रूप में निचला छोर। विष्णु जी ने स्वीकार किया कि मैं अंतिम छोर न ढूंढ पाया किन्तु ब्रह्मा जी ने झूठ कहा कि मैंने खोज लिया। तब शिव जी एक और ज्योतिर्लिंग रूप में प्रकट हुए और ब्रह्मा को श्राप दिया कि उनकी पूजा न होगी क्योंकि स्वयं को पूजित बनाने झूठ बोला था ।
यहीं पास में मणिकर्णिका मंदिर है जो सती माता का शक्तिपीठ है ।
यह भी एक कथा है कि शिव जी ने यह स्थल अपने त्रिशूल पर उठा रखा है और इसे ब्रह्मा की सृष्टि से पृथक कर दिया था। जब प्रलय होती है तो शिव जी इसे त्रिशूल पर रखते हैं और नए संसार में दुबारा अपने स्थान पर स्थापित कर हैं ।
एक और कथा है कि जब शिव जी ब्रह्मा जी पर क्रुद्ध हुए तो काल भैरव को प्रकट किया जिन्होने ब्रह्मा जी का एक मुख काट दिया। यह ब्रह्महत्या हुई और कटा हुआ मुख काल भैरव से जुड़ गया। उन्होंने बहुत प्रयास किये किन्तु ब्रह्मह्त्या अलग न होती थी। फिर कल भैरव ने काशी आकर गंगा स्नान किया और पाप मुक्त हुए । मंदिर प्रांगण में ज्ञानवापी नामक कुआं है । कहते हैं आक्रमण के समय पुजारी शिवलिंग को बचाने के लिए उन्हें लेकर कुँए में कूद गए थे।
दशम् ज्योर्तिलिंग श्री त्र्यम्बकेश्वर
त्र्यम्बकेश्वर ज्योर्तिलिंग मन्दिर महाराष्ट्र-प्रांत के नासिक जिले में हैं यहां के निकटवर्ती ब्रह्म गिरि नामक पर्वत से गोदावरी नदी का उद्गम है। इन्हीं पुण्य गोदावरी के उद्गम-स्थान के समीप स्थित त्रयम्बकेश् भगवान की भी बड़ी महिमा हैं
गौतम ऋषि तथा गोदावरी के प्रार्थनानुसार भगवान शिव इस स्थान में वास करने की कृपा की और त्र्यम्बकेश्वर नाम से विख्यात हुए। मंदिर के अंदर एक छोटे से गङ्ढे में तीन छोटे-छोटे लिंग है, ब्रह्मा, विष्णु और शिव- इन तीनों देवों के प्रतीक माने जाते हैं। शिवपुराण के ब्रह्मगिरि पर्वत के ऊपर जाने के लिये चौड़ी-चौड़ी सात सौ सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। इन सीढ़ियों पर चढ़ने के बाद 'रामकुण्ड' और 'लष्मणकुण्ड' मिलते हैं और शिखर के ऊपर पहुँचने पर गोमुख से निकलती हुई भगवती गोदावरी के दर्शन होते हैं।
विशेषता
त्रयंबकेश्वर मन्दिर
त्र्यंबकेश्वरज्योर्तिलिंग में ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों ही विराजित हैं यही इस ज्योतिर्लिंग की सबसे बड़ी विशेषता है। अन्य सभी ज्योतिर्लिंगों में केवल भगवान शिव ही विराजित हैं।
निर्माण
गोदावरी नदी के किनारे स्थित त्र्यंबकेश्वर मंदिर काले पत्थरों से बना है। मंदिर का स्थापत्य अद्भुत है। इस मंदिर ke panchakroshi me कालसर्प शांति, त्रिपिंडी विधि और नारायण नागबलि की पूजा संपन्न होती है। जिन्हें भक्तजन अलग-अलग मुराद पूरी होने के लिए करवाते हैं।
इस प्राचीन मंदिर का पुनर्निर्माण तीसरे पेशवा बालाजी अर्थात नाना साहब पेशवा ने करवाया था। इस मंदिर का जीर्णोद्धार 1755 में शुरू हुआ था और 31 साल के लंबे समय के बाद 1786 में जाकर पूरा हुआ। कहा जाता है कि इस भव्य मंदिर के निर्माण में करीब 16 लाख रुपए खर्च किए गए थे, जो उस समय काफी बड़ी रकम मानी जाती थी।
मंदिर
गाँव के अंदर कुछ दूर पैदल चलने के बाद मंदिर का मुख्य द्वार नजर आने लगता है। त्र्यंबकेश्वर मंदिर की भव्य इमारत सिंधु-आर्य शैली का उत्कृष्ट नमूना है। मंदिर के अंदर गर्भगृह में प्रवेश करने के बाद शिवलिंग की केवल आर्घा दिखाई देती है, लिंग नहीं। गौर से देखने पर अर्घा के अंदर एक-एक इंच के तीन लिंग दिखाई देते हैं। इन लिंगों को त्रिदेव- ब्रह्मा-विष्णु और महेश का अवतार माना जाता है। भोर के समय होने वाली पूजा के बाद इस अर्घा पर चाँदी का पंचमुखी मुकुट चढ़ा दिया जाता है।
स्थिति
त्र्यंबकेश्वर मंदिर और गाँव ब्रह्मगिरि नामक पहाड़ी की तलहटी में स्थित है। इस गिरि को शिव का साक्षात रूप माना जाता है। इसी पर्वत पर पवित्र गोदावरी नदी का उद्गमस्थल है। कहा जाता है-
कथा
‘प्राचीनकाल में त्र्यंबक गौतम ऋषि की तपोभूमि थी। अपने ऊपर लगे गोहत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए गौतम ऋषि ने कठोर तप कर शिव से गंगा को यहाँ अवतरित करने का वरदान माँगा। फलस्वरूप दक्षिण की गंगा अर्थात गोदावरी नदी का उद्गम हुआ।’ -दंत कथा
गोदावरी के उद्गम के साथ ही गौतम ऋषि के अनुनय-विनय के उपरांत शिवजी ने इस मंदिर में विराजमान होना स्वीकार कर लिया। तीन नेत्रों वाले शिवशंभु के यहाँ विराजमान होने के कारण इस जगह को त्र्यंबक (तीन नेत्रों वाले) कहा जाने लगा। उज्जैन और ओंकारेश्वर की ही तरह त्र्यंबकेश्वर महाराज को इस गाँव का राजा माना जाता है, इसलिए हर सोमवार को त्र्यंबकेश्वर के राजा अपनी प्रजा का हाल जानने के लिए नगर भ्रमण के लिए निकलते हैं।
पौराणिक कथा
इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना के विषय में शिवपुराण में यह कथा वर्णित है-
एक बार महर्षि गौतम के तपोवन में रहने वाले ब्राह्मणों की पत्नियाँ किसी बात पर उनकी पत्नी अहिल्या से नाराज हो गईं। उन्होंने अपने पतियों को ऋषि गौतम का अपकार करने के लिए प्रेरित किया। उन ब्राह्मणों ने इसके निमित्त भगवान् श्रीगणेशजी की आराधना की।
उनकी आराधना से प्रसन्न हो गणेशजी ने प्रकट होकर उनसे वर माँगने को कहा उन ब्राह्मणों ने कहा- 'प्रभो! यदि आप हम पर प्रसन्न हैं तो किसी प्रकार ऋषि गौतम को इस आश्रम से बाहर निकाल दें।' उनकी यह बात सुनकर गणेशजी ने उन्हें ऐसा वर माँगने के लिए समझाया। किंतु वे अपने आग्रह पर अटल रहे।
अंततः गणेशजी को विवश होकर उनकी बात माननी पड़ी। अपने भक्तों का मन रखने के लिए वे एक दुर्बल गाय का रूप धारण करके ऋषि गौतम के खेत में जाकर रहने लगे। गाय को फसल चरते देखकर ऋषि बड़ी नरमी के साथ हाथ में तृण लेकर उसे हाँकने के लिए लपके। उन तृणों का स्पर्श होते ही वह गाय वहीं मरकर गिर पड़ी। अब तो बड़ा हाहाकार मचा।
सारे ब्राह्मण एकत्र हो गो-हत्यारा कहकर ऋषि गौतम की भर्त्सना करने लगे। ऋषि गौतम इस घटना से बहुत आश्चर्यचकित और दुःखी थे। अब उन सारे ब्राह्मणों ने कहा कि तुम्हें यह आश्रम छोड़कर अन्यत्र कहीं दूर चले जाना चाहिए। गो-हत्यारे के निकट रहने से हमें भी पाप लगेगा। विवश होकर ऋषि गौतम अपनी पत्नी अहिल्या के साथ वहाँ से एक कोस दूर जाकर रहने लगे। किंतु उन ब्राह्मणों ने वहाँ भी उनका रहना दूभर कर दिया। वे कहने लगे- 'गो-हत्या के कारण तुम्हें अब वेद-पाठ और यज्ञादि के कार्य करने का कोई अधिकार नहीं रह गया।' अत्यंत अनुनय भाव से ऋषि गौतम ने उन ब्राह्मणों से प्रार्थना की कि आप लोग मेरे प्रायश्चित और उद्धार का कोई उपाय बताएँ।
तब उन्होंने कहा- 'गौतम! तुम अपने पाप को सर्वत्र सबको बताते हुए तीन बार पूरी पृथ्वी की परिक्रमा करो। फिर लौटकर यहाँ एक महीने तक व्रत करो। इसके बाद 'ब्रह्मगिरी' की 101 परिक्रमा करने के बाद तुम्हारी शुद्धि होगी अथवा यहाँ गंगाजी को लाकर उनके जल से स्नान करके एक करोड़ पार्थिव शिवलिंगों से शिवजी की आराधना करो। इसके बाद पुनः गंगाजी में स्नान करके इस ब्रह्मगीरि की 11 बार परिक्रमा करो। फिर सौ घड़ों के पवित्र जल से पार्थिव शिवलिंगों को स्नान कराने से तुम्हारा उद्धार होगा।
ब्राह्मणों के कथनानुसार महर्षि गौतम वे सारे कार्य पूरे करके पत्नी के साथ पूर्णतः तल्लीन होकर भगवान शिव की आराधना करने लगे। इससे प्रसन्न हो भगवान शिव ने प्रकट होकर उनसे वर माँगने को कहा। महर्षि गौतम ने उनसे कहा- 'भगवान् मैं यही चाहता हूँ कि आप मुझे गो-हत्या के पाप से मुक्त कर दें।' भगवान् शिव ने कहा- 'गौतम ! तुम सर्वथा निष्पाप हो। गो-हत्या का अपराध तुम पर छल पूर्वक लगाया गया था। छल पूर्वक ऐसा करवाने वाले तुम्हारे आश्रम के ब्राह्मणों को मैं दण्ड देना चाहता हूँ।'
इस पर महर्षि गौतम ने कहा कि प्रभु! उन्हीं के निमित्त से तो मुझे आपका दर्शन प्राप्त हुआ है। अब उन्हें मेरा परमहित समझकर उन पर आप क्रोध न करें।' बहुत से ऋषियों, मुनियों और देव गणों ने वहाँ एकत्र हो गौतम की बात का अनुमोदन करते हुए भगवान् शिव से सदा वहाँ निवास करने की प्रार्थना की। वे उनकी बात मानकर वहाँ त्र्यम्बक ज्योतिर्लिंग के नाम से स्थित हो गए। गौतमजी द्वारा लाई गई गंगाजी भी वहाँ पास में गोदावरी नाम से प्रवाहित होने लगीं। यह ज्योतिर्लिंग समस्त पुण्यों को प्रदान करने वाला है।
उत्सव
इस भ्रमण के समय त्र्यंबकेश्वर महाराज के पंचमुखी सोने के मुखौटे को पालकी में बैठाकर गाँव में घुमाया जाता है। फिर कुशावर्त तीर्थ स्थित घाट पर स्नान कराया जाता है। इसके बाद मुखौटे को वापस मंदिर में लाकर हीरेजड़ित स्वर्ण मुकुट पहनाया जाता है। यह पूरा दृश्य त्र्यंबक महाराज के राज्याभिषेक-सा महसूस होता है। इस यात्रा को देखना बेहद अलौकिक अनुभव है।
‘कुशावर्त तीर्थ की जन्मकथा काफी रोचक है। कहते हैं ब्रह्मगिरि पर्वत से गोदावरी नदी बार-बार लुप्त हो जाती थी। गोदावरी के पलायन को रोकने के लिए गौतम ऋषि ने एक कुशा की मदद लेकर गोदावरी को बंधन में बाँध दिया। उसके बाद से ही इस कुंड में हमेशा लबालब पानी रहता है। इस कुंड को ही कुशावर्त तीर्थ के नाम से जाना जाता है। कुंभ स्नान के समय शैव अखाड़े इसी कुंड में शाही स्नान करते हैं।’- दंत कथा
शिवरात्रि और सावन सोमवार के दिन त्र्यंबकेश्वर मंदिर में भक्तों का ताँता लगा रहता है। भक्त भोर के समय स्नान करके अपने आराध्य के दर्शन करते हैं। यहाँ कालसर्प योग और नारायण नागबलि नामक खास पूजा-अर्चना भी होती है, जिसके कारण यहाँ साल भर लोग आते रहते हैं.
(क्रमश:)
Monday, March 13, 2017
बुरा न मानो होली है!
बीजेपी खुशी मनाइ रही
होरी मा गुझिया खाइ रही.
चेहरा उनका पीला होइगा
मुंह लगा मुखौटा है गिरिगा.
आंखिन आगे अंधियारी है
यह दुनिया सब बेकारी है.
अब राह नजरि ना आइ रही
पार्टी की साख तौ जाइ रही. बीजेपी...
होरी उनकी तौ ह्वारा होइगै
अब बैगइ से झ्वारा होइगै .
भइया कुछ समझि नहीं आवा
जो कीन वहै फलु अब पावा.
कोउ जुगति न कामै आइ रही
अब जनता हंसी उड़ाइ रही . बीजेपी...
अब साइकिल कै परखच्चा उडिगे
बप्पा-चच्चा फिरि तौ बैरी होइगे .
जय-वीरू फिल्मै मा साथु दिहिन
मुल दंगल मा बंटाधार किहिन .
हाथी कै धूरि देखाइ रही
बहिनी अब भजनै गाइ रही . बीजेपी...
" बुरा न मानो होली है "
-राजेश शुक्ला छन्दक
ओंकार सदाशिव और हमारी आस्था5
(पूर्ववत् से आगे)
सप्तम् ज्योर्तिलिंग श्री रामेश्वरम्
यह ज्योर्तिलिंग भारतवर्ष के तमिलनाडु प्रांत में समुद्र के समीप स्थित है. यह बारह ज्योर्तिलिंगों मेंअत्यन्त महत्वपूर्ण है. यहां भगवान राम ने सीता जी खोज के समय अपने आराध्य शिवजी की आराधना की थी. उसी समय से शिवजी ज्योर्तिलिंग स्वरूप में विद्यमान हैं. रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग दक्षिण भारत के समुद्र तट पर स्थित है। कहते हैं मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम ने स्वयं अपने हाथों से श्री रामेश्वरम ज्योर्तिलिंग की स्थापना की थी।
रामेश्वरम की कथा
शिव पुराण के अनुसार जब श्रीराम ने रावण के वध हेतु लंका पर चढ़ाई की थी तो विजयश्री की प्राप्ति हेतु उन्होंने समुद्र के किनारे शिवलिंग बनाकर उनकी पूजा की थी। तब भगवान शंकर ने प्रसन्न होकर श्रीराम को विजयश्री का आशीर्वाद दिया था। श्री राम द्वारा प्रार्थना किए जाने पर लोककल्याण की भावना से ज्योतिर्लिंग के रूप में सदा के लिए वहां निवास करना भगवान शंकर ने स्वीकार कर लिया। एक अन्य मान्यता के अनुसार रामेश्वरम में विधिपूर्वक भगवान शिव की आराधना करने से मनुष्य ब्रह्महत्या जैसे पाप से भी मुक्त हो जाता है।
रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग का महत्व
कहते हैं जो मनुष्य परम पवित्र गंगाजल से भक्तिपूर्वक रामेश्वर शिव का अभिषेक करता है अथवा उन्हें स्नान कराता है वह जीवन- मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है और मोक्ष को प्राप्त कर लेता है.
जो व्यक्ति पूर्ण श्रद्वा और विश्वास के साथ रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग और हनुमदीश्वर लिंग का दर्शन करता है, उसे सभी पापों से मुक्ति मिलती है. यहां के दर्शनों का मह्त्व सभी प्रकार के यज्ञ और तप से अधिक कहा गया है. इसके अतिरिक्त यह भी कहा जाता है, कि यहां के दर्शन मात्र से ही व्यक्ति की सभी मनोकामनाएं पूरी होती है. यह स्थान ज्योतिर्लिंग और चार धाम यात्रा दोनों के फल देता है.
श्री रामेश्वरम में 24 कुएं है, जिन्हें "तीर्थ" कहकर सम्बोधित किया जाता है. इन कुंओं के जल से स्नान करने पर व्यक्ति को विशेष पुन्य की प्राप्ति होती है. यहां का जल मीठा है. इन कुंओं में आकर स्नान करने से व्यक्ति को उसके सभी पापों से मुक्ति मिलती है. कहा जाता है, कि ये कुंए भगवान राम के बाण चलाने से बने है. इस सम्बन्ध में एक अन्य मान्यता भी प्रसिद्ध है, जिसके अनुसार इन कुंओं मे सभी तीर्थों का जल लाकर छोडा गया है, इसलिए इन कुंओं के जल से स्नान करने पर व्यक्ति को सभी तीर्थों में स्नान करने के समान पुन्य फल प्राप्त होता है.
रामेश्वरम को पित्तरों के तर्पण का स्थल भी कहा गया है. यह स्थान दो ओर से सागरों से घिरा हुआ है. इस स्थान पर आकर श्रद्वालु अपने पित्तरों के लिए कार्य करते है. तथा समुद्र के जल में स्नान करते है. इसके अतिरिक्त यहां पर एक लक्ष्मणतीर्थ नाम से स्थान है, इस स्थान पर श्रद्वालु मुण्डन और श्राद्व कार्य दोनों करते है.
रामेश्वरम मंदिर के विषय में कहा जाता है कि जिन पत्थरों से यह मंदिर बना है, वे पत्थर श्रीलंका से लाये गए थे, क्योकि यहां आसपास क्या दूर दूर तक कोई पहाड नहीं है.
अष्टम् ज्योर्तिलिंग श्री नागेश्वर
श्री नागेश्वर ज्योतिर्लिंग गुजरात प्रान्त के द्वारकापुरी से लगभग 25 किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है। यह स्थान गोमती द्वारका से बेट द्वारका जाते समय रास्ते में पड़ता है। इसके अतिरिक्त नागेश्वर नाम से दो अन्य शिवलिंगों की भी चर्चा ग्रन्थों में है। मतान्तर से इन लिंगों को भी कुछ लोग ‘नागेश्वर ज्योतिर्लिंग कहते हैं। इनमें से एक नागेश्वर ज्योतिर्लिंग निजाम हैदराबाद, आन्ध्र प्रदेश में हैं.
जबकि दूसरा उत्तराखंड के अल्मोड़ा में ‘योगेश या ‘जागेश्वर शिवलिंग’ के नाम से प्रसिद्ध है। यद्यपि शिव पुराण के अनुसार समुद्र के किनारे द्वारका पुरी के पास स्थित शिवलिंग ही ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रमाणित होता है।
शिवलिंग की कथा
शिव पुराण के अनुसार एक धर्मात्मा, सदाचारी वैश्य शिवजी का अनन्य भक्त था, जिसका नाम ‘सुप्रिय’ था। जब वह नौका पर सवार होकर समुद्र के जलमार्ग से कहीं जा रहा था, उस समय ‘दारूक’ नामक एक भयंकर बलशाली राक्षस ने उस पर आक्रमण कर दिया। राक्षस दारूक ने सभी लोगों सहित सुप्रिय का अपहरण कर लिया और अपनी पुरी में ले जाकर बन्दी बना लिया।
नागेश्वर ज्योतिर्लिंग की प्राचीन कथा
वह ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाता हुआ धमका रहा था, लेकिन सुप्रिय पर कुछ भी प्रभाव न पड़ा। घमंडी राक्षस दारूक ने अपने अनुचरों को आदेश दिया कि सुप्रिय को मार डालो। अपनी हत्या के भय से भी सुप्रिय डरा नहीं और वह भयहारी, संकटमोचक भगवान शिव को ही पुकारने में लगा रहा। उस समय अपने भक्त की पुकार पर भगवान शिव ने उसे कारागार में ही दर्शन दिये। कारागार में एक ऊंचे स्थान पर चमकीले सिंहासन पर स्थित भगवान शिव ज्योतिर्लिंग के रूप में उसे दिखाई दिये। शंकर जी ने अपने पाशुपतास्त्र से सभी राक्षसों का नाश किया और भक्तों के कल्याण के लिए वहीँ लिंग रूप में अवस्थित हो गए।
भोलेनाथ के निर्देशानुसार ही उस शिवलिंग का नाम ‘नागेश्वर ज्योतिर्लिंग’ पड़ा। ‘नागेश्वर ज्योतिर्लिंग’ के दर्शन करने के बाद जो मनुष्य उसकी उत्पत्ति और माहात्म्य सम्बन्धी कथा सुनता है, वह भी समस्त पापों से मुक्त हो जाता है तथा सम्पूर्ण भौतिक और आध्यात्मिक सुखों को प्राप्त करता है.
(क्रमश:)
सप्तम् ज्योर्तिलिंग श्री रामेश्वरम्
यह ज्योर्तिलिंग भारतवर्ष के तमिलनाडु प्रांत में समुद्र के समीप स्थित है. यह बारह ज्योर्तिलिंगों मेंअत्यन्त महत्वपूर्ण है. यहां भगवान राम ने सीता जी खोज के समय अपने आराध्य शिवजी की आराधना की थी. उसी समय से शिवजी ज्योर्तिलिंग स्वरूप में विद्यमान हैं. रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग दक्षिण भारत के समुद्र तट पर स्थित है। कहते हैं मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम ने स्वयं अपने हाथों से श्री रामेश्वरम ज्योर्तिलिंग की स्थापना की थी।
रामेश्वरम की कथा
शिव पुराण के अनुसार जब श्रीराम ने रावण के वध हेतु लंका पर चढ़ाई की थी तो विजयश्री की प्राप्ति हेतु उन्होंने समुद्र के किनारे शिवलिंग बनाकर उनकी पूजा की थी। तब भगवान शंकर ने प्रसन्न होकर श्रीराम को विजयश्री का आशीर्वाद दिया था। श्री राम द्वारा प्रार्थना किए जाने पर लोककल्याण की भावना से ज्योतिर्लिंग के रूप में सदा के लिए वहां निवास करना भगवान शंकर ने स्वीकार कर लिया। एक अन्य मान्यता के अनुसार रामेश्वरम में विधिपूर्वक भगवान शिव की आराधना करने से मनुष्य ब्रह्महत्या जैसे पाप से भी मुक्त हो जाता है।
रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग का महत्व
कहते हैं जो मनुष्य परम पवित्र गंगाजल से भक्तिपूर्वक रामेश्वर शिव का अभिषेक करता है अथवा उन्हें स्नान कराता है वह जीवन- मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है और मोक्ष को प्राप्त कर लेता है.
जो व्यक्ति पूर्ण श्रद्वा और विश्वास के साथ रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग और हनुमदीश्वर लिंग का दर्शन करता है, उसे सभी पापों से मुक्ति मिलती है. यहां के दर्शनों का मह्त्व सभी प्रकार के यज्ञ और तप से अधिक कहा गया है. इसके अतिरिक्त यह भी कहा जाता है, कि यहां के दर्शन मात्र से ही व्यक्ति की सभी मनोकामनाएं पूरी होती है. यह स्थान ज्योतिर्लिंग और चार धाम यात्रा दोनों के फल देता है.
श्री रामेश्वरम में 24 कुएं है, जिन्हें "तीर्थ" कहकर सम्बोधित किया जाता है. इन कुंओं के जल से स्नान करने पर व्यक्ति को विशेष पुन्य की प्राप्ति होती है. यहां का जल मीठा है. इन कुंओं में आकर स्नान करने से व्यक्ति को उसके सभी पापों से मुक्ति मिलती है. कहा जाता है, कि ये कुंए भगवान राम के बाण चलाने से बने है. इस सम्बन्ध में एक अन्य मान्यता भी प्रसिद्ध है, जिसके अनुसार इन कुंओं मे सभी तीर्थों का जल लाकर छोडा गया है, इसलिए इन कुंओं के जल से स्नान करने पर व्यक्ति को सभी तीर्थों में स्नान करने के समान पुन्य फल प्राप्त होता है.
रामेश्वरम को पित्तरों के तर्पण का स्थल भी कहा गया है. यह स्थान दो ओर से सागरों से घिरा हुआ है. इस स्थान पर आकर श्रद्वालु अपने पित्तरों के लिए कार्य करते है. तथा समुद्र के जल में स्नान करते है. इसके अतिरिक्त यहां पर एक लक्ष्मणतीर्थ नाम से स्थान है, इस स्थान पर श्रद्वालु मुण्डन और श्राद्व कार्य दोनों करते है.
रामेश्वरम मंदिर के विषय में कहा जाता है कि जिन पत्थरों से यह मंदिर बना है, वे पत्थर श्रीलंका से लाये गए थे, क्योकि यहां आसपास क्या दूर दूर तक कोई पहाड नहीं है.
अष्टम् ज्योर्तिलिंग श्री नागेश्वर
श्री नागेश्वर ज्योतिर्लिंग गुजरात प्रान्त के द्वारकापुरी से लगभग 25 किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है। यह स्थान गोमती द्वारका से बेट द्वारका जाते समय रास्ते में पड़ता है। इसके अतिरिक्त नागेश्वर नाम से दो अन्य शिवलिंगों की भी चर्चा ग्रन्थों में है। मतान्तर से इन लिंगों को भी कुछ लोग ‘नागेश्वर ज्योतिर्लिंग कहते हैं। इनमें से एक नागेश्वर ज्योतिर्लिंग निजाम हैदराबाद, आन्ध्र प्रदेश में हैं.
जबकि दूसरा उत्तराखंड के अल्मोड़ा में ‘योगेश या ‘जागेश्वर शिवलिंग’ के नाम से प्रसिद्ध है। यद्यपि शिव पुराण के अनुसार समुद्र के किनारे द्वारका पुरी के पास स्थित शिवलिंग ही ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रमाणित होता है।
शिवलिंग की कथा
शिव पुराण के अनुसार एक धर्मात्मा, सदाचारी वैश्य शिवजी का अनन्य भक्त था, जिसका नाम ‘सुप्रिय’ था। जब वह नौका पर सवार होकर समुद्र के जलमार्ग से कहीं जा रहा था, उस समय ‘दारूक’ नामक एक भयंकर बलशाली राक्षस ने उस पर आक्रमण कर दिया। राक्षस दारूक ने सभी लोगों सहित सुप्रिय का अपहरण कर लिया और अपनी पुरी में ले जाकर बन्दी बना लिया।
नागेश्वर ज्योतिर्लिंग की प्राचीन कथा
वह ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाता हुआ धमका रहा था, लेकिन सुप्रिय पर कुछ भी प्रभाव न पड़ा। घमंडी राक्षस दारूक ने अपने अनुचरों को आदेश दिया कि सुप्रिय को मार डालो। अपनी हत्या के भय से भी सुप्रिय डरा नहीं और वह भयहारी, संकटमोचक भगवान शिव को ही पुकारने में लगा रहा। उस समय अपने भक्त की पुकार पर भगवान शिव ने उसे कारागार में ही दर्शन दिये। कारागार में एक ऊंचे स्थान पर चमकीले सिंहासन पर स्थित भगवान शिव ज्योतिर्लिंग के रूप में उसे दिखाई दिये। शंकर जी ने अपने पाशुपतास्त्र से सभी राक्षसों का नाश किया और भक्तों के कल्याण के लिए वहीँ लिंग रूप में अवस्थित हो गए।
भोलेनाथ के निर्देशानुसार ही उस शिवलिंग का नाम ‘नागेश्वर ज्योतिर्लिंग’ पड़ा। ‘नागेश्वर ज्योतिर्लिंग’ के दर्शन करने के बाद जो मनुष्य उसकी उत्पत्ति और माहात्म्य सम्बन्धी कथा सुनता है, वह भी समस्त पापों से मुक्त हो जाता है तथा सम्पूर्ण भौतिक और आध्यात्मिक सुखों को प्राप्त करता है.
(क्रमश:)
Sunday, March 12, 2017
अब फागुन में 4 होली की बधाई!
" रंगभरी होली की सभी लोगों को
शुभ कामनाएं व हार्दिक बधाई"
तन-मन सब गभुआर लगै
आए सजन घर फागुन में.
हिय वीणा अब झंकारि उठी
सब साज बजे हैं फागुन में.
छनकै अब पायल पावन की
चुप होय नहीं अब फागुन में.
चूड़ी खन-खन खनकि रहीं
जनु गाइ रहीं अब फागुन में.
आजु बने होरियार सजन
मोंहि ढूंढि रहे हैं फागुन में.
मैं जाइ छिपी अंधियारे सुनो
तंह पहुंचि गये हैं फागुन में.
हमको तंह पकरो बाहंन बिच
मुख लाल कियो है फागुन में.
फिर हमहूं कसरि निकारि लीन
मधुमास लगैं दूनौ फागुन में.
फिरि आजु सरारर रंगु चलै
महि रंगि रही है फागुन में.
बुढ़वा सगरे तौ जवान भए
मन रंगि गयो अब फागुन में.
चुनरी सबकी सतरंगी भयीं
सखि गोपी बनी हैं फागुन में.
हमरे तौ सजन अब श्याम लगैं
मैं राधा लगी अब फागुन में.
- राजेश शुक्ला छन्दक
मो. ०९१९८००३६५७
Thursday, March 9, 2017
ओंकार सदाशिव और हमारी आस्था 4
(पूर्ववत् से आगे)
पंचम् ज्योर्तिलिंग श्री बैद्यनाथ
यह ज्योर्तिलिंग भारतभूमि के महाराष्ट्र प्रांत में औंढा स्थान के समीप स्थित है. इस स्थान को परली के नाम से जाना जाता है.
औंढा नागनाथ ज्योतिर्लिंग के दर्शन, पूजन तथा अभिषेक के बाद अब हमारा अगला पड़ाव था परली वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग जो की औंढा नागनाथ से लगभग 130 किलोमीटर की दुरी पर है, औंढा बस स्टैंड से सीधे परली के लिए महाराष्ट्र परिवहन की बसें उपलब्ध हैं, या फिर औंढा से परभणी और परभणी से परली पहुंचा जा सकता है, औंढा से हमें परली के लिए सीधी बस मिल गई थी अतः शाम करीब सात बजे हम परली पहुँच गए, परली बस स्टॉप से ऑटो रिक्शा में सवार होकर हम श्री परली वैद्यनाथ मंदिर पहुँच गए, परली में एक बड़ी अच्छी बात यह है की परली वैद्यनाथ मंदिर ट्रस्ट द्वारा संचालित यात्री निवास (धर्मशाला) मंदिर के एकदम करीब स्थित है, यानी मंदिर की सीढियों से एकदम लगा हुआ.
परली वैजनाथ मंदिर: एक विहंगम द्रश्य
हम जब भी धार्मिक यात्रा पर जाते हैं तो हमारी हमेशा यही कोशिश रहती है की विश्राम स्थल मंदिर के जितना हो सके करीब हो, ताकि अपने प्रवास के दौरान हमारा जितनी बार मन करे उतनी बार हम भगवान् के दर्शन कर पायें, साथ ही साथ मन में यह संतुष्टि भी होती है की हम मंदिर के करीब रह रहे हैं, और हम मंदिर की सारी गतिविधियाँ देख पाते हैं.
यात्री निवास में व्यवस्था भी अच्छी थी, 300 रु. में डबल बेड, अटेच्ड लेट बाथ, गरम पानी के अलावा एल सी डी टीवी आदि, कुल मिला कर ठीक ठाक व्यवस्था थी, रूम में चेक इन करने के बाद थोडा सा आराम करके हम भोजन की तलाश में निकल गए,
परली वैद्यनाथ– एक परिचय:
महाराष्ट्र राज्य के मराठवाडा क्षेत्र के बीड़ जिले में स्थित है धार्मिक नगर परली वैजनाथ (परली वैद्यनाथ), और यहाँ पर स्थित है भगवान शिव का सुप्रसिद्ध ज्योतिर्लिंग मंदिर, जिसमें विराजते हैं भगवान् वैद्यनाथ जो की शिवपुराण के कोटिरुद्रसंहिता के २८ वें अध्याय के अंतर्गत वर्णित द्वादशज्योतिर्लिंगस्तोत्रं के अनुसार भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक हैं. हालाँकि जैसे मैंने अपनी पिछली पोस्ट में बताया की इस ज्योतिर्लिंग के स्थान के बारे में भी लोगों के बिच मतभेद है तथा बहुत से लोग मानते हैं की यह ज्योतिर्लिंग झारखण्ड के देवघर में स्थित बैद्यनाथ धाम मंदिर में स्थित है, फिर भी भक्तों का एक बड़ा वर्ग मानता है की बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग परली में ही है.
भारत के नक़्शे पर कन्याकुमारी से उज्जैन के बीच अगर एक मध्य रेखा खिंची जाय तो उस रेखा पर आपको परली गाँव दिखाई देगा, यह गाँव मेरु पर्वत अथवा नागनारायण पहाड़ की एक ढलान पर बसा है. ब्रम्हा, वेणु और सरस्वती नदियों के आसपास बसा परली एक प्राचीन गाँव है तथा यहाँ पर विद्युत् निर्माण का बहुत बड़ा थर्मल पॉवर स्टेशन है. गाँव के आसपास का क्षेत्र पुराण कालीन घटनाओं का साक्षी है अतः इस गाँव को विशेष महत्व प्राप्त हुआ है.
पौराणिक किवदंती:
देव दानवों द्वारा किये गए अमृत मंथन से चौदह रत्न निकले थे, उनमें धन्वन्तरी और अमृत दो रत्न थे. अमृत को प्राप्त करने दानव दौड़े तब श्री विष्णु ने अमृत के साथ धन्वन्तरी को एक शिवलिंग में छुपा दिया था. दानवों ने जैसे ही उस शिवलिंग को छूने की कोशिश की वैसे ही शिवलिंग में से ज्वालायें निकलने लगी, लेकिन जब उसे शिवभक्तों ने छुआ तो उसमें से अमृतधारा निकलने लगी, ऐसा माना जाता है की परली वैद्यनाथ वही शिवलिंग है, अमृत युक्त होने के कारण ही इसे वैद्यनाथ (स्वास्थ्य का देवता ) कहा जाता है.
श्री वैद्यनाथ मंदिर शिल्प:
माना जाता है की वैद्यनाथ मंदिर लगभग 2000 वर्ष पुराना है, तथा इस मंदिर के निर्माण कार्य को पूरा होने में 18 वर्ष लगे थे, वर्त्तमान मंदिर का जीर्णोद्धार इंदौर की शिवभक्त महारानी देवी अहिल्याबाई होलकर ने अठारहवीं सदी में करवाया था. अहिल्या देवी को यह तीर्थ स्थान बहुत प्रिय था.
यह भव्य तथा सुन्दर मंदिर मेरु पर्वत की ढलान पर पत्थरों से बना है तथा गाँव की सतह से करीब अस्सी फीट की उंचाई पर है. इस मंदिर तक पहुँचने के लिए तीन दिशाएं तथा प्रवेश के तीन द्वार हैं. यह मंदिर गाँव के बाहरी इलाके में स्थित है तथा बस स्टैंड एवं रेलवे स्टेशन से चार किलोमीटर की दुरी पर है. इस मंदिर के शिल्प के विषय में एक रोचक कहानी है, महारानी अहिल्या बाई होलकर जिन्होंने इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया, उन्हें इस मंदिर के निर्माण के लिए अपनी पसंद का पत्थर प्राप्त करने में बड़ी कठिनाई हो रही थी, अंततः उन्हें अपने स्वप्न में उस पत्थर की जानकारी मिली तथा उन्हें आश्चर्य हुआ की जिस पत्थर के लिए परेशान हो रही थी वह परली नगर के समीप ही स्थित त्रिशाला देवी पर्वत पर उपलब्ध है.
मंदिर के चारों ओर मजबूत दीवारें हैं , मंदिर परिसर के अन्दर विशाल बरामदा तथा सभामंडप है यह सभामंडप साग की मजबूत लकड़ी से निर्मित है तथा यह बिना किसी सहारे के खड़ा है, मंदिर के बहार ऊँचा दीप स्तम्भ है तथा दीपस्तंभ से ही लगी हुई है पुण्यश्लोक देवी अहिल्याबाई की नयनाभिराम प्रतिमा. मंदिर के महाद्वार के पास एक मीनार है, जिसे प्राची या गवाक्ष कहते हैं, इनकी दिशा साधना के कारण मंदिर में चैत्र और आश्विन माह में एक विशेष दिन को सूर्योदय के समय सूर्य की किरणें श्री वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग पर पड़ती हैं. मंदिर में जाने के लिए काफी चौड़ाई लिए कई सारी मजबूत सीढियाँ हैं जिन्हें घाट कहते हैं. मंदिर परिसर में ही अन्य ग्यारह ज्योतिर्लिंगों के सुन्दर मंदिर भी स्थित हैं. मंदिर में प्रवेश पूर्व की ओर से तथा निकास उत्तर की ओर से है. यह एकमात्र स्थान है जहाँ नारद जी का मंदिर भी है. ज्योतिर्लिंग मंदिर के पहले ही शनिदेव तथा आदि शंकराचार्य के मंदिर भी हैं.
गर्भगृह:
इस मंदिर में गर्भगृह तथा सभाग्रह एक ही भू-स्तर (लेवल) पर स्थित होने के कारण सभामंडप से ही बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग के दर्शन हो जाते हैं, शिवलिंग एकदम काले शालिग्राम पत्थर से निर्मित है. गर्भगृह में चारों दिशाओं में एक एक अखंड ज्योति दीप हमेशा जलते रहते हैं. ज्योतिर्लिंग (जलाधारी सहित) को क्षरण से बचाने के लिए हर समय एक चांदी के आवरण से ढँक कर रखा जाता है, सिर्फ दोपहर में दो से तीन बजे के बिच श्रृंगार के लिए ही आवरण हटाया जाता है, अतः भक्तों को आवरण से ज्योतिर्लिंग के दर्शन पूजन करके संतुष्टि करनी पड़ती है. ज्योतिर्लिंग के ठीक ऊपर पांच माध्यम आकार के चांदी के गोमुख लटकते रहते हैं जो की भगवान वैद्यनाथ का अभिषेक करने में प्रयुक्त होते हैं. यहाँ पर भी मंदिर ट्रस्ट के नियमों के अंतर्गत 151 से लेकर 251 रु. के बिच दक्षिणा देकर पंचामृत से ज्योतिर्लिंग का रुद्राभिषेक किया जा सकता है लेकिन चांदी के आवरण के साथ ही. गर्भगृह माध्यम आकार का है तथा एक साथ अठारह से बीस लोग पूजन अभिषेक कर सकते हैं.
सभामंडप में गर्भगृह के ठीक सामने लेकिन थोड़ी दुरी पर एक ही जगह पर एक साथ तीन अलग अलग आकार के पीली आभा लिए पीतल के नंदी विद्यमान हैं, जहाँ से ज्योतिर्लिंग के स्पष्ट दर्शन होते हैं. गर्भगृह के प्रवेश द्वार के समीप ही माता पार्वती का मंदिर भी है.
षष्टम् ज्योर्तिलिंग श्री भीमशंकर
भारतवर्ष में प्रकट हुए भगवान शंकर के बारह ज्योतिर्लिंग में श्री भीमशंकर ज्योतिर्लिंग का छठा स्थान हैं। इस ज्योतिर्लिंग में कुछ मतभेद हैं। द्वादश ज्योतिर्लिंग स्तोत्र में ‘डाकिन्यां भीमशंकरम्’ ऐसा लिखा है, जिसमें ‘डाकिनी’ शब्द से स्थान का स्पष्ट उल्लेख नहीं हो पाता है। इसके अनुसार भीमशंकर ज्योतिर्लिंग मुम्बई से पूरब और
पूना से उत्तर भीमा नदी के तट पर अवस्थित है।
लोकव पुराण के अनुसार भीमशंकर ज्योतिर्लिंग असम प्रान्त के कामरूप जनपद में गुवाहाटी के पास ब्रह्मरूप पहाड़ी पर स्थित है। कुछ लोग तो
उत्तराखंड प्रदेश के नैनीताल ज़िले में ‘उज्जनक’ स्थान पर स्थित भगवान शिव के विशाल मन्दिर को भी भीमशंकर ज्योतिर्लिंग कहते हैं। श्री शिव महापुराण के कोटि रुद्र संहिता में श्री भीमशंकर ज्योतिर्लिंग के सम्बन्ध में इस प्रकार लिखा है–
‘लोक हित की कामना से भगवान शंकर कामरूप देश में ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हुए। उनका वह कल्याणकारक स्वरूप बड़ा ही सुखदायी था। पूर्वकाल में भीम नामक एक महाबलशाली और पराक्रमी राक्षस उत्पन्न हुआ था। वह अत्याचारी राक्षस जगह-जगह धर्म का नाश करता हुआ सम्पूर्ण प्राणियों को सताया करता था। भयंकर बलशाली वह राक्षस
कुम्भकर्ण के वीर्य और कर्कट की पुत्री कर्कटी के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। भीम अपनी माता कर्कटी के साथ ही ‘सह्य’ नामक पर्वत पर निवास करता था। उसने अपने जीवन में अपने पिता को कभी नहीं देखा था। एक दिन उसने आपनी माता से पूछा- ‘माँ! तुम इस पर्वत पर अकेली क्यों रहती हो? मेरे पिताजी कौन हैं और कहाँ रहते हैं? मुझे ये सब बातें जानने की बड़ी इच्छा है, इसलिए तुम सच-सच बताओ’–
मात मे क: पिता कुत्र कथं वैकाकिनी स्थिता।
ज्ञातुमिच्छमि तत्सर्वं यथार्थं त्वं वदाधुना।।
तदनन्तर उसकी माता कर्कटी ने उसे विस्तार से बताया कि तुम्हारे पिता का नाम कुम्भकर्ण था, जो रावण के छोटे भाई थे। महाबलशाली और पराक्रमी उस वीर को भाई सहित श्री राम ने मार डाला था। मेरे पिता अर्थात तुम्हारे नाना का नाम कर्कट और नानी का नाम पुष्कसी था। मेरे पूर्व पति का नाम ‘विराध’ था, जिन्हें पहले ही श्रीराम ने मार डाला था। मैं अपने प्रिय स्वामी विराध के मारे जाने पर अपने माता-पिता के पास आकर रहने लगी थी, क्योंकि मेरा सहारा अन्य कोई नहीं था। एक दिन मेरे माता-पिता आहार की खोज में निकले और उन्होंने अगस्त्य मुनि के परम शिष्य तपस्वी सुतीक्ष्ण को अपना आहार बनाना चाहा, किन्तु वे ऋषि महान तपस्वी और महात्मा थे। इसलिए उन्होंने कुपित होकर अपने तपोबल से मेरे माता-पिता को भस्म कर डाला। वे दोनों वहीं मर गये और मैं अकेली अनाथ हो गई। मुझ पर चारों तरफ से दु:ख का पहाड़ टूट पड़ा और मैं दु:खी होकर अकेली इस पर्वत पर रहने लगी। मेरा इस दुनिया में कोई अवलम्बन क्या सहारा भी न रहा और मैं आतुर होकर एकाकी ही किसी प्रकार अपना जीवन जी रही थी। एक दिन इस सुनसान पहाड़ पर राक्षसराज रावण के छोटे भाई महाबल और पराक्रम से युक्त कुम्भकर्ण आ गये।
उन्होंने मेरे साथ बलात्कार किया और समागम के बाद वे मुझे यहीं छोड़कर पुन: लंका में चले गये। उसके बाद समय पूरा होने पर तुम्हारा जन्म हुआ। बेटा! तुम अपने पिता के समान ही साक्षात महाबली और पराक्रमी हो। तुम्हें ही देख-देखकर, तुम्हारे ही सहारे अब मैं अपना जीवन चला रही हूँ और किसी तरह समय बीत रहा है।
अपनी माता कर्कटी के बात सुनकर भयानक पराक्रमी राक्षस कुपित हो उठा। उसने विचार किया कि विष्णु के साथ कैसा व्यवहार किया जाना चाहिए, उनसे प्रतिरोध (बदला) लेने का क्या उपाय है? वह चिन्तित होकर अपनी माँ की बातों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने लगा- ‘विष्णु ने मेरे पिता को मार डाला। मेरे नाना-नानी भी उनके ही भक्त के हाथों मारे गये। इतना ही नहीं विराध को भी उन्होंने ही मार डाला। निश्चित ही श्रीहरि ने मुझ पर बहुत ही अत्याचार किया है, अत्यधिक कष्ट दिया है। उसने निश्चय किया कि हरि द्वारा किये गये कृत्य का बदला वह अवश्य लेगा। उसने अपनी माता के सामने कहा कि यदि मैं अपने पिता का पुत्र हूँ, तो श्री हरि से अवश्य ही बदला लेकर रहूँगा, उन्हें भारी कष्ट दूँगा।
इस प्रकार निश्चय कर वह बलवान राक्षस अपनी शक्ति को और अधिक बढ़ाने के लिए तपस्या करने चला गया। उसने संकल्प लेकर ब्रह्माजी को प्रसन्न करने हेतु एक हज़ार वर्षों तक तप किया। वह मानसिक रूप से अपने इष्टदेव के ध्यान में ही मग्न रहता था। उसकी तपस्या, ध्यान और अर्चना-वन्दना से लोकपितामह ब्रह्मा जी प्रसन्न हो उठे। ब्रह्मा जी ने उसे वर देने की इच्छा से कहा- ‘भीम! मैं तुम्हारी तपस्या और धैर्य से बहुत प्रसन्न हूँ और तुम्हें वर देना चाहता हूँ। इसलिए तुम अपना अभीष्ट वर मांगो।' तदनन्तर उस राक्षस ने कहा– ‘देवेश्वर! यदि आप मेरे ऊपर सच में प्रसन्न हैं और मेरा भला करना चाहते हैं, तो आप मुझे अतुलनीय बल प्रदान कीजिए। मुझे इतना बल और पराक्रम प्राप्त हो, जिसकी तुलना कहीं भी न हो सके।’ इस प्रकार बोलते हुए राक्षस भीम ने बार-बार ब्रह्मा जी को प्रणाम किया।
उसकी तपस्या से प्रभावित ब्रह्मा जी उसे अतुलनीय बल-प्राप्ति का वर देकर अपने धाम चले गये। ब्रह्मा जी से अतुलनीय बल प्राप्त करने के कारण वह राक्षस अत्यन्त प्रसन्न हो गया। उसने अपने निवास पर आकर अपनी माता जी को प्रणाम किया और अत्यन्त अहंकार के साथ उससे कहा– ‘माँ! अब तुम मेरा बल और पराक्रम देखो। अब मैं इन्द्र इत्यादि देवताओं के साथ ही इनका सहयोग करने वाले महान श्री हरि का भी संहार कर डालूँगा। अपनी माँ से इस प्रकार कहने के बाद वीर राक्षस भीम ने इन्द्रादि देवताओं पर चढ़ाई कर दी। उसने उन सबको जीत लिया और उनके स्थान से उन्हें भगा दिया। उसके बाद तो उसने घोर युद्ध करके देवताओं का पक्ष लेने वाले श्रीहरि को भी परजित कर दिया।
उसके बाद भीम ने प्रसन्नतापूर्वक सम्पूर्ण पृथ्वी को जीतने का अभियान चलाया। वह सर्वप्रथम कामरूप देश के राजा सुदक्षिण को जीतने के लिए पहुँचा। उसने उस राजा के साथ भंयकर युद्ध किया। क्योंकि ब्रह्मा जी के वरदान से भीम के पास अतुलनीय शक्ति प्राप्त थी, इसलिए महावीर और शिव के परम भक्त सुदक्षिण युद्ध में परास्त हो गये। उसने राजा का राज्य और उनकी सम्पूर्ण सम्पत्ति को अपने अधिकार में ले लिया। इतने पर भी उस पराक्रमी राक्षस भीम का क्रोध शान्त नहीं हुआ, तो उसने धर्म प्रेमी और शिव के अनन्य भक्त राजा सुदक्षिण को कैद कर लिया। सुदक्षिण के पैरों में बेड़ी डालकर उन्हें एकान्त स्थान में निरुद्ध (बन्द) कर दिया। उस एकान्त स्थान का लाभ उठाते हुए शिव भक्त राजा सुदक्षिण ने भगवान शिव की उत्तम पार्थिव मूर्ति बनाकर उनका भजन-पूजन प्रारम्भ कर दिया।
गंगा जी को भी प्रसन्न करने के लिए राजा ने ढेर सारी स्तुति की और विवशता के कारण मानसिक स्नान किया। उसके बाद उन्होंने शास्त्र विधि से पार्थिव लिंग में भगवान शिव की अर्चना की। उसके बाद वे विधिपूर्वक भगवान शिव का ध्यान करते हुए पंचाक्षर मन्त्र अर्थात 'ॐ नम: शिवाय' का जप करने लगे। राजा सुदक्षिण इसी दिनचर्या को अपनाकर रात-दिन शिव जी की भक्ति में लगे रहते थे। उनकी साध्वी धर्मपत्नी रानी दक्षिणा भी राजा का अनुकरण करती हुई श्रद्धा-भक्ति पूर्वक पार्थिव पूजन में जुट गयीं। वे पति-पत्नी अकारण करुणावरुणालय भगवान शिव को प्रसन्न करने हेतु अनन्य भाव से उनकी भक्ति में लीन रहते थे।
राक्षस भीम ब्रह्मा जी के वरदान के कारण अत्यन्त अहंकार में डूब गया। अभिमान में मोहित होकर वह यज्ञों का विध्वंस करने लगा और तमाम धार्मिक कृत्यों में बाधा डालने लगा। उसने जनता में ऐसी घोषणा करवा दी कि संसार का सब कुछ उसे ही मानें और समझें। इस प्रकार उस दुष्ट राक्षस ने एक विशाल सेना इकट्ठी करके सम्पूर्ण पृथ्वी को अपने अधिकार में कर लिया। उसके बाद उसके दुराचारों की सीमा न रही।
राक्षस भीम के अत्याचार से पीड़ित सभी देवता और ऋषिगण महाकोशी नदी के किनारे जाकर भगवान शिव की आराधना और स्तुति करने लगे। उनकी सामूहिक स्तुति और प्रार्थना से भगवान शंकर ने देवताओं से कहा–‘देवगण तथा महर्षियों! मैं आप लोगों पर अत्यन्त प्रसन्न हूँ, बोलिए, आप लोगों का कौन-सा अभीष्ट कार्य (प्रियकार्य) सिद्ध करूँ?’ देवताओं ने देवाधिदेव से कहा कि ‘आप अन्तर्यामी हैं, इसलिए सबके मन की बात जानते हैं। आपसे कोई भी रहस्य छिपा नहीं रह सकता है।’ देवताओं ने आगे कहा– ‘महेश्वर! राक्षस कुम्भकर्ण से उत्पन्न कर्कटी का महाबलशाली पुत्र राक्षस भीम, ब्रह्मा जी से वर प्राप्त कर अत्यन्त शक्तिशाली और अभिमान में आ गया है तथा देवताओं को अनवरत कष्ट पहुँचा रहा है। भगवान! बिना देरी किये आप उस दु:खदायी राक्षस का शीघ्र ही नाश कर डालिए। हम सभी देवगण उससे अत्यन्त क्षुब्ध होकर आपकी शरण में आये हैं।’
भगवान शिव ने उन देवताओं को आश्वस्त करते हुए बताया कि कामरूप देश के राजा सुदक्षिण उनके श्रेष्ठ भक्त हैं। आप लोग उनके पास मेरा एक सन्देश सुना दो। उसके बाद आप लोगों का सारा अभीष्ट कार्य पूरा हो जाएगा। उनसे बोलना – कामरूप के अधिपति महाराज सुदक्षिण! तुम शिव के परम भक्त हो। इसलिए तुम उनका प्रेमपूर्वक भजन करो। दुष्ट राक्षस भीम ब्रह्मा जी का वर प्राप्त कर ही अभिमानी बन गया है और इसीलिए वह तुम्हारा अपमान कर रहा है। अपने भक्त के कष्ट को नहीं सहन करने वाले भगवान शिव शीघ्र ही उस दुष्ट राक्षस का नाश करने वाले हैं। इस वाणी में किसी भी प्रकार का सन्देह नहीं है।’ उसके बाद भगवान शंकर की वाणी से अत्यन्त प्रसन्न उन देवताओं ने महाराजा सुदक्षिण के पास पहुँचकर सारी घटना बताई। राजा को शिव का कल्याणकारक सन्देश देने से देवताओं और ऋषियों का हित करने वाले भगवान शंकर अपने गणों के साथ उस राजा के निकट जाकर गोपनीय रूप में वहीं ठहर गये। राजा सुदक्षिण विधिपूर्वक पार्थिवपूजन करके भगवान शिव के ध्यान में लीन हो गये।
किसी व्यक्ति ने जाकर राक्षस से बताया कि राजा पार्थिव पूजन करके तुम्हारे लिए अनुष्ठान कर रहे हैं। समाचार पाते ही राक्षस क्रोध से आग – बबूला हो उठा। वह राजा का वध करने हेतु हाथ में नंगी तलवार लेकर चल पड़ा। ध्यान में मग्न राजा को देखकर उसका चेहरा क्रोध से तमतमा रहा था। उसने पूजन सामग्री, पार्थिव शिवलिंग, वातावरण को देखकर तथा उसके प्रयोजन और स्वरूप को समझकर मान लिया कि राजा उसके अनिष्ट के लिए ही कुछ कर रहा है। उस महाक्रोधी राक्षस ने ऐसा विचार किया कि इन सब पूजन सामग्रियों सहित इस नरेश को भी मैं शीघ्र ही नष्ट कर देता हूँ। उसने राजा को डाँट-फटकार लगाते हुए पूछा कि ‘तुम यह क्या कर रहे हो?’ राजा भगवान शंकर के समर्पित भक्त थे। इसलिए उन्होंने निर्भयतापूर्वक कहा कि ‘मैं चराचर जगत के स्वामी भगवान शिव की पूजा कर रहा हूँ।’
यह सुनकर मद में मतवाले उस राक्षस ने भगवान शिव के प्रति बहुत से दुर्वचन बोले और उनका अपमान किया तथा पार्थिव लिंग पर तलवार का प्रहार किया। उसकी तलवार लिंग को छू नहीं पायी, तभी भगवान रुद्र (शिव) तत्काल प्रकट हो गये। उन्होंने कहा–‘देखो, मैं भीमेश्वर शिव अपने भक्त की रक्षा के लिए प्रकट हुआ हूँ। इसलिए राक्षस! अब तू मेरे बल और पराक्रम को देख।’ इस प्रकार बोलते हुए भगवान शिव ने अपने पिनाक से उसकी तलवार के टुकड़े-टुकड़े कर दिया। उसके बाद उस राक्षस ने शिव जी पर अपना त्रिशूल चला दिया, किन्तु उन्होंने उसके भी अनेक टुकड़े कर डाले। तदनंन्तर उस राक्षस ने शिव जी के साथ घोर युद्ध किया, जिससे सारा जगत क्षुब्ध हो उठा। उस स्थिति में मुनि नारद वहाँ पहुँच गये और उन्होंने भगवान शंकर से प्रार्थना की ‘महेश्वर! संसार को भ्रमित करने वाले मेरे नाथ! अब आप क्षमा करें। सामान्य तिनके को काटने हेतु कुल्हाड़ी चलाने की क्या आवश्यकता है? अब तो इसका संहार शीघ्र कर डालिए–
क्षम्यतां क्षम्यतां नाथत्वया विभ्रमकारक।
तृणे कश्च कुठारे वै हन्यतां शीघ्रमेव हि।।
इति संप्रार्थित: शम्भु: सर्वान रक्षोगणान्प्रभु:।
हुंकारेणैव चास्त्रेण भस्मसात्कृतवांस्तदा।।
इस प्रकार जब नारद जी ने भगवान शिव की प्रार्थना की, उन्होंने अपनी हुँकार मात्र से भीम सहित समस्त राक्षसों को भस्म कर डाला। उन राक्षसों को शंकर जी के द्वारा जला दिये जाने के बाद समस्त देवताओं और ऋषियों ने राहत की साँस ली तथा लोक में शान्ति की स्थापना हो सकी। ऋषियों ने देवाधिदेव भगवान शिव की विशेष स्तुति और प्रार्थना की। उन्होंने कहा–‘भूतभावन शिव!
यह क्षेत्र बहुत ही निन्दित माना जाता है, इसलिए लोक कल्याण की भावना से आप सदा के लिए यहीं निवास करें। प्राय: ऐसा देखा गया है कि जो व्यक्ति यहाँ आता है, उसे कष्ट ही मिलता है, किन्तु आपके दर्शन करने से प्रत्येक आने वाले का कल्याण होगा। भगवान! आपका यह ज्योतिर्लिंग सर्वथा पूजनीय तथा सभी प्रकार के संकटों को टालने वाला है। आप यहाँ भीमशंकर के नाम से प्रसिद्ध होंगे और सबके मनोरथों को सिद्ध करेंगे। इस प्रकार देवताओं तथा ऋषियों की प्रार्थना पर प्रसन्न भक्तवत्सल शिव ने उनका आग्रह स्वीकार कर लिया और प्रसन्नतापूर्वक वहीं स्थित हो गये। इस प्रकार की कथा का प्रामाणिक उल्लेख श्री शिव पुराण में विस्तार से किया गया है
अयं वै कुत्सितो देश अयोध्यालोकदु:खद:।
भवन्तं च तदा दृष्ट्वा कल्याणं सम्भाविष्यति।।
भीमशंकरनामा त्वं भविता सर्वसाधक:।
एतल्लिंग सदा पूज्यं सर्वापद्विनिवारकम्।।
इत्येवं प्रार्थित: शम्भुलोकानां हितकारक:।
तत्रैवास्थितवान्प्रीत्या स्वतन्त्रो भक्तवत्सल:।।
(क्रमश:)
पंचम् ज्योर्तिलिंग श्री बैद्यनाथ
यह ज्योर्तिलिंग भारतभूमि के महाराष्ट्र प्रांत में औंढा स्थान के समीप स्थित है. इस स्थान को परली के नाम से जाना जाता है.
औंढा नागनाथ ज्योतिर्लिंग के दर्शन, पूजन तथा अभिषेक के बाद अब हमारा अगला पड़ाव था परली वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग जो की औंढा नागनाथ से लगभग 130 किलोमीटर की दुरी पर है, औंढा बस स्टैंड से सीधे परली के लिए महाराष्ट्र परिवहन की बसें उपलब्ध हैं, या फिर औंढा से परभणी और परभणी से परली पहुंचा जा सकता है, औंढा से हमें परली के लिए सीधी बस मिल गई थी अतः शाम करीब सात बजे हम परली पहुँच गए, परली बस स्टॉप से ऑटो रिक्शा में सवार होकर हम श्री परली वैद्यनाथ मंदिर पहुँच गए, परली में एक बड़ी अच्छी बात यह है की परली वैद्यनाथ मंदिर ट्रस्ट द्वारा संचालित यात्री निवास (धर्मशाला) मंदिर के एकदम करीब स्थित है, यानी मंदिर की सीढियों से एकदम लगा हुआ.
परली वैजनाथ मंदिर: एक विहंगम द्रश्य
हम जब भी धार्मिक यात्रा पर जाते हैं तो हमारी हमेशा यही कोशिश रहती है की विश्राम स्थल मंदिर के जितना हो सके करीब हो, ताकि अपने प्रवास के दौरान हमारा जितनी बार मन करे उतनी बार हम भगवान् के दर्शन कर पायें, साथ ही साथ मन में यह संतुष्टि भी होती है की हम मंदिर के करीब रह रहे हैं, और हम मंदिर की सारी गतिविधियाँ देख पाते हैं.
यात्री निवास में व्यवस्था भी अच्छी थी, 300 रु. में डबल बेड, अटेच्ड लेट बाथ, गरम पानी के अलावा एल सी डी टीवी आदि, कुल मिला कर ठीक ठाक व्यवस्था थी, रूम में चेक इन करने के बाद थोडा सा आराम करके हम भोजन की तलाश में निकल गए,
परली वैद्यनाथ– एक परिचय:
महाराष्ट्र राज्य के मराठवाडा क्षेत्र के बीड़ जिले में स्थित है धार्मिक नगर परली वैजनाथ (परली वैद्यनाथ), और यहाँ पर स्थित है भगवान शिव का सुप्रसिद्ध ज्योतिर्लिंग मंदिर, जिसमें विराजते हैं भगवान् वैद्यनाथ जो की शिवपुराण के कोटिरुद्रसंहिता के २८ वें अध्याय के अंतर्गत वर्णित द्वादशज्योतिर्लिंगस्तोत्रं के अनुसार भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक हैं. हालाँकि जैसे मैंने अपनी पिछली पोस्ट में बताया की इस ज्योतिर्लिंग के स्थान के बारे में भी लोगों के बिच मतभेद है तथा बहुत से लोग मानते हैं की यह ज्योतिर्लिंग झारखण्ड के देवघर में स्थित बैद्यनाथ धाम मंदिर में स्थित है, फिर भी भक्तों का एक बड़ा वर्ग मानता है की बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग परली में ही है.
भारत के नक़्शे पर कन्याकुमारी से उज्जैन के बीच अगर एक मध्य रेखा खिंची जाय तो उस रेखा पर आपको परली गाँव दिखाई देगा, यह गाँव मेरु पर्वत अथवा नागनारायण पहाड़ की एक ढलान पर बसा है. ब्रम्हा, वेणु और सरस्वती नदियों के आसपास बसा परली एक प्राचीन गाँव है तथा यहाँ पर विद्युत् निर्माण का बहुत बड़ा थर्मल पॉवर स्टेशन है. गाँव के आसपास का क्षेत्र पुराण कालीन घटनाओं का साक्षी है अतः इस गाँव को विशेष महत्व प्राप्त हुआ है.
पौराणिक किवदंती:
देव दानवों द्वारा किये गए अमृत मंथन से चौदह रत्न निकले थे, उनमें धन्वन्तरी और अमृत दो रत्न थे. अमृत को प्राप्त करने दानव दौड़े तब श्री विष्णु ने अमृत के साथ धन्वन्तरी को एक शिवलिंग में छुपा दिया था. दानवों ने जैसे ही उस शिवलिंग को छूने की कोशिश की वैसे ही शिवलिंग में से ज्वालायें निकलने लगी, लेकिन जब उसे शिवभक्तों ने छुआ तो उसमें से अमृतधारा निकलने लगी, ऐसा माना जाता है की परली वैद्यनाथ वही शिवलिंग है, अमृत युक्त होने के कारण ही इसे वैद्यनाथ (स्वास्थ्य का देवता ) कहा जाता है.
श्री वैद्यनाथ मंदिर शिल्प:
माना जाता है की वैद्यनाथ मंदिर लगभग 2000 वर्ष पुराना है, तथा इस मंदिर के निर्माण कार्य को पूरा होने में 18 वर्ष लगे थे, वर्त्तमान मंदिर का जीर्णोद्धार इंदौर की शिवभक्त महारानी देवी अहिल्याबाई होलकर ने अठारहवीं सदी में करवाया था. अहिल्या देवी को यह तीर्थ स्थान बहुत प्रिय था.
यह भव्य तथा सुन्दर मंदिर मेरु पर्वत की ढलान पर पत्थरों से बना है तथा गाँव की सतह से करीब अस्सी फीट की उंचाई पर है. इस मंदिर तक पहुँचने के लिए तीन दिशाएं तथा प्रवेश के तीन द्वार हैं. यह मंदिर गाँव के बाहरी इलाके में स्थित है तथा बस स्टैंड एवं रेलवे स्टेशन से चार किलोमीटर की दुरी पर है. इस मंदिर के शिल्प के विषय में एक रोचक कहानी है, महारानी अहिल्या बाई होलकर जिन्होंने इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया, उन्हें इस मंदिर के निर्माण के लिए अपनी पसंद का पत्थर प्राप्त करने में बड़ी कठिनाई हो रही थी, अंततः उन्हें अपने स्वप्न में उस पत्थर की जानकारी मिली तथा उन्हें आश्चर्य हुआ की जिस पत्थर के लिए परेशान हो रही थी वह परली नगर के समीप ही स्थित त्रिशाला देवी पर्वत पर उपलब्ध है.
मंदिर के चारों ओर मजबूत दीवारें हैं , मंदिर परिसर के अन्दर विशाल बरामदा तथा सभामंडप है यह सभामंडप साग की मजबूत लकड़ी से निर्मित है तथा यह बिना किसी सहारे के खड़ा है, मंदिर के बहार ऊँचा दीप स्तम्भ है तथा दीपस्तंभ से ही लगी हुई है पुण्यश्लोक देवी अहिल्याबाई की नयनाभिराम प्रतिमा. मंदिर के महाद्वार के पास एक मीनार है, जिसे प्राची या गवाक्ष कहते हैं, इनकी दिशा साधना के कारण मंदिर में चैत्र और आश्विन माह में एक विशेष दिन को सूर्योदय के समय सूर्य की किरणें श्री वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग पर पड़ती हैं. मंदिर में जाने के लिए काफी चौड़ाई लिए कई सारी मजबूत सीढियाँ हैं जिन्हें घाट कहते हैं. मंदिर परिसर में ही अन्य ग्यारह ज्योतिर्लिंगों के सुन्दर मंदिर भी स्थित हैं. मंदिर में प्रवेश पूर्व की ओर से तथा निकास उत्तर की ओर से है. यह एकमात्र स्थान है जहाँ नारद जी का मंदिर भी है. ज्योतिर्लिंग मंदिर के पहले ही शनिदेव तथा आदि शंकराचार्य के मंदिर भी हैं.
गर्भगृह:
इस मंदिर में गर्भगृह तथा सभाग्रह एक ही भू-स्तर (लेवल) पर स्थित होने के कारण सभामंडप से ही बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग के दर्शन हो जाते हैं, शिवलिंग एकदम काले शालिग्राम पत्थर से निर्मित है. गर्भगृह में चारों दिशाओं में एक एक अखंड ज्योति दीप हमेशा जलते रहते हैं. ज्योतिर्लिंग (जलाधारी सहित) को क्षरण से बचाने के लिए हर समय एक चांदी के आवरण से ढँक कर रखा जाता है, सिर्फ दोपहर में दो से तीन बजे के बिच श्रृंगार के लिए ही आवरण हटाया जाता है, अतः भक्तों को आवरण से ज्योतिर्लिंग के दर्शन पूजन करके संतुष्टि करनी पड़ती है. ज्योतिर्लिंग के ठीक ऊपर पांच माध्यम आकार के चांदी के गोमुख लटकते रहते हैं जो की भगवान वैद्यनाथ का अभिषेक करने में प्रयुक्त होते हैं. यहाँ पर भी मंदिर ट्रस्ट के नियमों के अंतर्गत 151 से लेकर 251 रु. के बिच दक्षिणा देकर पंचामृत से ज्योतिर्लिंग का रुद्राभिषेक किया जा सकता है लेकिन चांदी के आवरण के साथ ही. गर्भगृह माध्यम आकार का है तथा एक साथ अठारह से बीस लोग पूजन अभिषेक कर सकते हैं.
सभामंडप में गर्भगृह के ठीक सामने लेकिन थोड़ी दुरी पर एक ही जगह पर एक साथ तीन अलग अलग आकार के पीली आभा लिए पीतल के नंदी विद्यमान हैं, जहाँ से ज्योतिर्लिंग के स्पष्ट दर्शन होते हैं. गर्भगृह के प्रवेश द्वार के समीप ही माता पार्वती का मंदिर भी है.
षष्टम् ज्योर्तिलिंग श्री भीमशंकर
भारतवर्ष में प्रकट हुए भगवान शंकर के बारह ज्योतिर्लिंग में श्री भीमशंकर ज्योतिर्लिंग का छठा स्थान हैं। इस ज्योतिर्लिंग में कुछ मतभेद हैं। द्वादश ज्योतिर्लिंग स्तोत्र में ‘डाकिन्यां भीमशंकरम्’ ऐसा लिखा है, जिसमें ‘डाकिनी’ शब्द से स्थान का स्पष्ट उल्लेख नहीं हो पाता है। इसके अनुसार भीमशंकर ज्योतिर्लिंग मुम्बई से पूरब और
पूना से उत्तर भीमा नदी के तट पर अवस्थित है।
लोकव पुराण के अनुसार भीमशंकर ज्योतिर्लिंग असम प्रान्त के कामरूप जनपद में गुवाहाटी के पास ब्रह्मरूप पहाड़ी पर स्थित है। कुछ लोग तो
उत्तराखंड प्रदेश के नैनीताल ज़िले में ‘उज्जनक’ स्थान पर स्थित भगवान शिव के विशाल मन्दिर को भी भीमशंकर ज्योतिर्लिंग कहते हैं। श्री शिव महापुराण के कोटि रुद्र संहिता में श्री भीमशंकर ज्योतिर्लिंग के सम्बन्ध में इस प्रकार लिखा है–
‘लोक हित की कामना से भगवान शंकर कामरूप देश में ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हुए। उनका वह कल्याणकारक स्वरूप बड़ा ही सुखदायी था। पूर्वकाल में भीम नामक एक महाबलशाली और पराक्रमी राक्षस उत्पन्न हुआ था। वह अत्याचारी राक्षस जगह-जगह धर्म का नाश करता हुआ सम्पूर्ण प्राणियों को सताया करता था। भयंकर बलशाली वह राक्षस
कुम्भकर्ण के वीर्य और कर्कट की पुत्री कर्कटी के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। भीम अपनी माता कर्कटी के साथ ही ‘सह्य’ नामक पर्वत पर निवास करता था। उसने अपने जीवन में अपने पिता को कभी नहीं देखा था। एक दिन उसने आपनी माता से पूछा- ‘माँ! तुम इस पर्वत पर अकेली क्यों रहती हो? मेरे पिताजी कौन हैं और कहाँ रहते हैं? मुझे ये सब बातें जानने की बड़ी इच्छा है, इसलिए तुम सच-सच बताओ’–
मात मे क: पिता कुत्र कथं वैकाकिनी स्थिता।
ज्ञातुमिच्छमि तत्सर्वं यथार्थं त्वं वदाधुना।।
तदनन्तर उसकी माता कर्कटी ने उसे विस्तार से बताया कि तुम्हारे पिता का नाम कुम्भकर्ण था, जो रावण के छोटे भाई थे। महाबलशाली और पराक्रमी उस वीर को भाई सहित श्री राम ने मार डाला था। मेरे पिता अर्थात तुम्हारे नाना का नाम कर्कट और नानी का नाम पुष्कसी था। मेरे पूर्व पति का नाम ‘विराध’ था, जिन्हें पहले ही श्रीराम ने मार डाला था। मैं अपने प्रिय स्वामी विराध के मारे जाने पर अपने माता-पिता के पास आकर रहने लगी थी, क्योंकि मेरा सहारा अन्य कोई नहीं था। एक दिन मेरे माता-पिता आहार की खोज में निकले और उन्होंने अगस्त्य मुनि के परम शिष्य तपस्वी सुतीक्ष्ण को अपना आहार बनाना चाहा, किन्तु वे ऋषि महान तपस्वी और महात्मा थे। इसलिए उन्होंने कुपित होकर अपने तपोबल से मेरे माता-पिता को भस्म कर डाला। वे दोनों वहीं मर गये और मैं अकेली अनाथ हो गई। मुझ पर चारों तरफ से दु:ख का पहाड़ टूट पड़ा और मैं दु:खी होकर अकेली इस पर्वत पर रहने लगी। मेरा इस दुनिया में कोई अवलम्बन क्या सहारा भी न रहा और मैं आतुर होकर एकाकी ही किसी प्रकार अपना जीवन जी रही थी। एक दिन इस सुनसान पहाड़ पर राक्षसराज रावण के छोटे भाई महाबल और पराक्रम से युक्त कुम्भकर्ण आ गये।
उन्होंने मेरे साथ बलात्कार किया और समागम के बाद वे मुझे यहीं छोड़कर पुन: लंका में चले गये। उसके बाद समय पूरा होने पर तुम्हारा जन्म हुआ। बेटा! तुम अपने पिता के समान ही साक्षात महाबली और पराक्रमी हो। तुम्हें ही देख-देखकर, तुम्हारे ही सहारे अब मैं अपना जीवन चला रही हूँ और किसी तरह समय बीत रहा है।
अपनी माता कर्कटी के बात सुनकर भयानक पराक्रमी राक्षस कुपित हो उठा। उसने विचार किया कि विष्णु के साथ कैसा व्यवहार किया जाना चाहिए, उनसे प्रतिरोध (बदला) लेने का क्या उपाय है? वह चिन्तित होकर अपनी माँ की बातों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने लगा- ‘विष्णु ने मेरे पिता को मार डाला। मेरे नाना-नानी भी उनके ही भक्त के हाथों मारे गये। इतना ही नहीं विराध को भी उन्होंने ही मार डाला। निश्चित ही श्रीहरि ने मुझ पर बहुत ही अत्याचार किया है, अत्यधिक कष्ट दिया है। उसने निश्चय किया कि हरि द्वारा किये गये कृत्य का बदला वह अवश्य लेगा। उसने अपनी माता के सामने कहा कि यदि मैं अपने पिता का पुत्र हूँ, तो श्री हरि से अवश्य ही बदला लेकर रहूँगा, उन्हें भारी कष्ट दूँगा।
इस प्रकार निश्चय कर वह बलवान राक्षस अपनी शक्ति को और अधिक बढ़ाने के लिए तपस्या करने चला गया। उसने संकल्प लेकर ब्रह्माजी को प्रसन्न करने हेतु एक हज़ार वर्षों तक तप किया। वह मानसिक रूप से अपने इष्टदेव के ध्यान में ही मग्न रहता था। उसकी तपस्या, ध्यान और अर्चना-वन्दना से लोकपितामह ब्रह्मा जी प्रसन्न हो उठे। ब्रह्मा जी ने उसे वर देने की इच्छा से कहा- ‘भीम! मैं तुम्हारी तपस्या और धैर्य से बहुत प्रसन्न हूँ और तुम्हें वर देना चाहता हूँ। इसलिए तुम अपना अभीष्ट वर मांगो।' तदनन्तर उस राक्षस ने कहा– ‘देवेश्वर! यदि आप मेरे ऊपर सच में प्रसन्न हैं और मेरा भला करना चाहते हैं, तो आप मुझे अतुलनीय बल प्रदान कीजिए। मुझे इतना बल और पराक्रम प्राप्त हो, जिसकी तुलना कहीं भी न हो सके।’ इस प्रकार बोलते हुए राक्षस भीम ने बार-बार ब्रह्मा जी को प्रणाम किया।
उसकी तपस्या से प्रभावित ब्रह्मा जी उसे अतुलनीय बल-प्राप्ति का वर देकर अपने धाम चले गये। ब्रह्मा जी से अतुलनीय बल प्राप्त करने के कारण वह राक्षस अत्यन्त प्रसन्न हो गया। उसने अपने निवास पर आकर अपनी माता जी को प्रणाम किया और अत्यन्त अहंकार के साथ उससे कहा– ‘माँ! अब तुम मेरा बल और पराक्रम देखो। अब मैं इन्द्र इत्यादि देवताओं के साथ ही इनका सहयोग करने वाले महान श्री हरि का भी संहार कर डालूँगा। अपनी माँ से इस प्रकार कहने के बाद वीर राक्षस भीम ने इन्द्रादि देवताओं पर चढ़ाई कर दी। उसने उन सबको जीत लिया और उनके स्थान से उन्हें भगा दिया। उसके बाद तो उसने घोर युद्ध करके देवताओं का पक्ष लेने वाले श्रीहरि को भी परजित कर दिया।
उसके बाद भीम ने प्रसन्नतापूर्वक सम्पूर्ण पृथ्वी को जीतने का अभियान चलाया। वह सर्वप्रथम कामरूप देश के राजा सुदक्षिण को जीतने के लिए पहुँचा। उसने उस राजा के साथ भंयकर युद्ध किया। क्योंकि ब्रह्मा जी के वरदान से भीम के पास अतुलनीय शक्ति प्राप्त थी, इसलिए महावीर और शिव के परम भक्त सुदक्षिण युद्ध में परास्त हो गये। उसने राजा का राज्य और उनकी सम्पूर्ण सम्पत्ति को अपने अधिकार में ले लिया। इतने पर भी उस पराक्रमी राक्षस भीम का क्रोध शान्त नहीं हुआ, तो उसने धर्म प्रेमी और शिव के अनन्य भक्त राजा सुदक्षिण को कैद कर लिया। सुदक्षिण के पैरों में बेड़ी डालकर उन्हें एकान्त स्थान में निरुद्ध (बन्द) कर दिया। उस एकान्त स्थान का लाभ उठाते हुए शिव भक्त राजा सुदक्षिण ने भगवान शिव की उत्तम पार्थिव मूर्ति बनाकर उनका भजन-पूजन प्रारम्भ कर दिया।
गंगा जी को भी प्रसन्न करने के लिए राजा ने ढेर सारी स्तुति की और विवशता के कारण मानसिक स्नान किया। उसके बाद उन्होंने शास्त्र विधि से पार्थिव लिंग में भगवान शिव की अर्चना की। उसके बाद वे विधिपूर्वक भगवान शिव का ध्यान करते हुए पंचाक्षर मन्त्र अर्थात 'ॐ नम: शिवाय' का जप करने लगे। राजा सुदक्षिण इसी दिनचर्या को अपनाकर रात-दिन शिव जी की भक्ति में लगे रहते थे। उनकी साध्वी धर्मपत्नी रानी दक्षिणा भी राजा का अनुकरण करती हुई श्रद्धा-भक्ति पूर्वक पार्थिव पूजन में जुट गयीं। वे पति-पत्नी अकारण करुणावरुणालय भगवान शिव को प्रसन्न करने हेतु अनन्य भाव से उनकी भक्ति में लीन रहते थे।
राक्षस भीम ब्रह्मा जी के वरदान के कारण अत्यन्त अहंकार में डूब गया। अभिमान में मोहित होकर वह यज्ञों का विध्वंस करने लगा और तमाम धार्मिक कृत्यों में बाधा डालने लगा। उसने जनता में ऐसी घोषणा करवा दी कि संसार का सब कुछ उसे ही मानें और समझें। इस प्रकार उस दुष्ट राक्षस ने एक विशाल सेना इकट्ठी करके सम्पूर्ण पृथ्वी को अपने अधिकार में कर लिया। उसके बाद उसके दुराचारों की सीमा न रही।
राक्षस भीम के अत्याचार से पीड़ित सभी देवता और ऋषिगण महाकोशी नदी के किनारे जाकर भगवान शिव की आराधना और स्तुति करने लगे। उनकी सामूहिक स्तुति और प्रार्थना से भगवान शंकर ने देवताओं से कहा–‘देवगण तथा महर्षियों! मैं आप लोगों पर अत्यन्त प्रसन्न हूँ, बोलिए, आप लोगों का कौन-सा अभीष्ट कार्य (प्रियकार्य) सिद्ध करूँ?’ देवताओं ने देवाधिदेव से कहा कि ‘आप अन्तर्यामी हैं, इसलिए सबके मन की बात जानते हैं। आपसे कोई भी रहस्य छिपा नहीं रह सकता है।’ देवताओं ने आगे कहा– ‘महेश्वर! राक्षस कुम्भकर्ण से उत्पन्न कर्कटी का महाबलशाली पुत्र राक्षस भीम, ब्रह्मा जी से वर प्राप्त कर अत्यन्त शक्तिशाली और अभिमान में आ गया है तथा देवताओं को अनवरत कष्ट पहुँचा रहा है। भगवान! बिना देरी किये आप उस दु:खदायी राक्षस का शीघ्र ही नाश कर डालिए। हम सभी देवगण उससे अत्यन्त क्षुब्ध होकर आपकी शरण में आये हैं।’
भगवान शिव ने उन देवताओं को आश्वस्त करते हुए बताया कि कामरूप देश के राजा सुदक्षिण उनके श्रेष्ठ भक्त हैं। आप लोग उनके पास मेरा एक सन्देश सुना दो। उसके बाद आप लोगों का सारा अभीष्ट कार्य पूरा हो जाएगा। उनसे बोलना – कामरूप के अधिपति महाराज सुदक्षिण! तुम शिव के परम भक्त हो। इसलिए तुम उनका प्रेमपूर्वक भजन करो। दुष्ट राक्षस भीम ब्रह्मा जी का वर प्राप्त कर ही अभिमानी बन गया है और इसीलिए वह तुम्हारा अपमान कर रहा है। अपने भक्त के कष्ट को नहीं सहन करने वाले भगवान शिव शीघ्र ही उस दुष्ट राक्षस का नाश करने वाले हैं। इस वाणी में किसी भी प्रकार का सन्देह नहीं है।’ उसके बाद भगवान शंकर की वाणी से अत्यन्त प्रसन्न उन देवताओं ने महाराजा सुदक्षिण के पास पहुँचकर सारी घटना बताई। राजा को शिव का कल्याणकारक सन्देश देने से देवताओं और ऋषियों का हित करने वाले भगवान शंकर अपने गणों के साथ उस राजा के निकट जाकर गोपनीय रूप में वहीं ठहर गये। राजा सुदक्षिण विधिपूर्वक पार्थिवपूजन करके भगवान शिव के ध्यान में लीन हो गये।
किसी व्यक्ति ने जाकर राक्षस से बताया कि राजा पार्थिव पूजन करके तुम्हारे लिए अनुष्ठान कर रहे हैं। समाचार पाते ही राक्षस क्रोध से आग – बबूला हो उठा। वह राजा का वध करने हेतु हाथ में नंगी तलवार लेकर चल पड़ा। ध्यान में मग्न राजा को देखकर उसका चेहरा क्रोध से तमतमा रहा था। उसने पूजन सामग्री, पार्थिव शिवलिंग, वातावरण को देखकर तथा उसके प्रयोजन और स्वरूप को समझकर मान लिया कि राजा उसके अनिष्ट के लिए ही कुछ कर रहा है। उस महाक्रोधी राक्षस ने ऐसा विचार किया कि इन सब पूजन सामग्रियों सहित इस नरेश को भी मैं शीघ्र ही नष्ट कर देता हूँ। उसने राजा को डाँट-फटकार लगाते हुए पूछा कि ‘तुम यह क्या कर रहे हो?’ राजा भगवान शंकर के समर्पित भक्त थे। इसलिए उन्होंने निर्भयतापूर्वक कहा कि ‘मैं चराचर जगत के स्वामी भगवान शिव की पूजा कर रहा हूँ।’
यह सुनकर मद में मतवाले उस राक्षस ने भगवान शिव के प्रति बहुत से दुर्वचन बोले और उनका अपमान किया तथा पार्थिव लिंग पर तलवार का प्रहार किया। उसकी तलवार लिंग को छू नहीं पायी, तभी भगवान रुद्र (शिव) तत्काल प्रकट हो गये। उन्होंने कहा–‘देखो, मैं भीमेश्वर शिव अपने भक्त की रक्षा के लिए प्रकट हुआ हूँ। इसलिए राक्षस! अब तू मेरे बल और पराक्रम को देख।’ इस प्रकार बोलते हुए भगवान शिव ने अपने पिनाक से उसकी तलवार के टुकड़े-टुकड़े कर दिया। उसके बाद उस राक्षस ने शिव जी पर अपना त्रिशूल चला दिया, किन्तु उन्होंने उसके भी अनेक टुकड़े कर डाले। तदनंन्तर उस राक्षस ने शिव जी के साथ घोर युद्ध किया, जिससे सारा जगत क्षुब्ध हो उठा। उस स्थिति में मुनि नारद वहाँ पहुँच गये और उन्होंने भगवान शंकर से प्रार्थना की ‘महेश्वर! संसार को भ्रमित करने वाले मेरे नाथ! अब आप क्षमा करें। सामान्य तिनके को काटने हेतु कुल्हाड़ी चलाने की क्या आवश्यकता है? अब तो इसका संहार शीघ्र कर डालिए–
क्षम्यतां क्षम्यतां नाथत्वया विभ्रमकारक।
तृणे कश्च कुठारे वै हन्यतां शीघ्रमेव हि।।
इति संप्रार्थित: शम्भु: सर्वान रक्षोगणान्प्रभु:।
हुंकारेणैव चास्त्रेण भस्मसात्कृतवांस्तदा।।
इस प्रकार जब नारद जी ने भगवान शिव की प्रार्थना की, उन्होंने अपनी हुँकार मात्र से भीम सहित समस्त राक्षसों को भस्म कर डाला। उन राक्षसों को शंकर जी के द्वारा जला दिये जाने के बाद समस्त देवताओं और ऋषियों ने राहत की साँस ली तथा लोक में शान्ति की स्थापना हो सकी। ऋषियों ने देवाधिदेव भगवान शिव की विशेष स्तुति और प्रार्थना की। उन्होंने कहा–‘भूतभावन शिव!
यह क्षेत्र बहुत ही निन्दित माना जाता है, इसलिए लोक कल्याण की भावना से आप सदा के लिए यहीं निवास करें। प्राय: ऐसा देखा गया है कि जो व्यक्ति यहाँ आता है, उसे कष्ट ही मिलता है, किन्तु आपके दर्शन करने से प्रत्येक आने वाले का कल्याण होगा। भगवान! आपका यह ज्योतिर्लिंग सर्वथा पूजनीय तथा सभी प्रकार के संकटों को टालने वाला है। आप यहाँ भीमशंकर के नाम से प्रसिद्ध होंगे और सबके मनोरथों को सिद्ध करेंगे। इस प्रकार देवताओं तथा ऋषियों की प्रार्थना पर प्रसन्न भक्तवत्सल शिव ने उनका आग्रह स्वीकार कर लिया और प्रसन्नतापूर्वक वहीं स्थित हो गये। इस प्रकार की कथा का प्रामाणिक उल्लेख श्री शिव पुराण में विस्तार से किया गया है
अयं वै कुत्सितो देश अयोध्यालोकदु:खद:।
भवन्तं च तदा दृष्ट्वा कल्याणं सम्भाविष्यति।।
भीमशंकरनामा त्वं भविता सर्वसाधक:।
एतल्लिंग सदा पूज्यं सर्वापद्विनिवारकम्।।
इत्येवं प्रार्थित: शम्भुलोकानां हितकारक:।
तत्रैवास्थितवान्प्रीत्या स्वतन्त्रो भक्तवत्सल:।।
(क्रमश:)
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