Wednesday, August 20, 2014

दोहे

अपने सब अपने कहैं, मन बहुतै खुश होय।
घाव करैं जब सगे तो, औषधि दिखे न कोय।।

अपनो जीवन हवन करि, सुत को पालै मातु।
जस देखी सारंग नवल, बिसरि गयी तब मातु।।

पूजा, ब्रत सब करि रहे, दीनन को दें दान।
मातु-पिता सेवैं नहीं, जिनते उनको मान।।

पश्चिम के संग चलै में, जर भूलें सब कोय।
हाथ न आवै वहि दिशा, भानु भी डूबा होय।।

सब भाषा सुन्दर गुणी, करो सबका सम्मान।
निज भाषा भूलो नहीं, जिससे देश की शान।।  





Thursday, August 7, 2014

बिटिया

घर-आँगन जब सब सूना था,
बनके एक फूल खिली बिटिया।
मुस्कान पिता की वह बनकर,
मातृत्व के साथ पली बिटिया।
पुतली माँ-बाप के नयनों की,
नन्हें कदमों पे चली बिटिया।
सप्त-राग मधुर पैजनियों के,
लगती रुनझुन में भली बिटिया।।

गुड़ियों को रखकर बिस्तर पर,
स्कूल को जब जाती बिटिया।
विश्वास पिता का अडिग रहे,
ट्रॉफी संग में लाती बिटिया।
माँ की ममता औ सीखों से,
सम्मान बहुत पाती बिटिया।
शिच्छा के चरम आसमां पर,
ध्रुवतारा बन जाती बिटिया।।

हो अन्धकार जहाँ भी कोने में,
फिर दीवाली बन जाती बिटिया।
काली बदरी बन सावन की ,
स्नेह फुहार बरसाती बिटिया ।
खुशबू से घर-बाहर अपनी ,
महर-महर महकाती बिटिया।
कष्ट किसी पर जब भी आए,
मदर टेरेसा बन जाती बिटिया।।

जन्मदात्री माँ से अलग जब,
पति के घर को जाये बिटिया।
अपनी श्रद्धा, सेवा के भरोसे ,
प्यार सभी का पाये बिटिया।
पति के कुल को श्रेष्ठ समझ,
उसका मान बढ़ाये बिटिया।
नज़र उठे जब कुल पर कोई,
दुर्गा फिर बन जाये बिटिया।।

पुत्र की आस को मन में रख,
कैसे नर हरने चले बिटिया।
बन शत्रु गर्भ पर वार करें ,
फिर भ्रूण में कैसे पले बिटिया।
निर्मोही, निर्मम, हत्यारे वे,
अपने ही कर से छले बिटिया।
अब रोये धरा औ अम्बर भी,
अपनों के हाथ जले बिटिया।।



  

 

Tuesday, August 5, 2014

इस माटी से चन्दन करते हैं



















जन्मभूमि पावन अपनी, इसका हम वन्दन करते हैं।
भारत माता के पुत्र आज, इस माटी से चन्दन करते हैं।।

रवि की प्रथम किरण कुंदन, साँझ सुहाग की लाली है।
पग धोता रत्नाकर निशिदिन, हिमगिरि करता रखवाली है।
ऋतुएँ जहाँ बदलती रहती , फिर आता है मधुमास यहां।
इस धरती पर आते कामदेव, नटवर नर्तन कर गए जहाँ।
कारी बदरी को देख मोर , फिर कलरव क्रंदन करते हैं।।
भारत माता के पुत्र आज, इस माटी से चन्दन करते हैं।।

वेद, पुराण, ऋचाएँ पावन, अनमोल व्यास की थाती है।
तोते रटते हैं राम नाम, कोयलिया गीत सुनाती है।
मानव की क्या बात करें, पाहन भी पूजे जाते हैं।
द्वार से भूखा जा न सके, बलिभाग काक भी पाते हैं।
गायें भी माता कहलाती, हम उनका पूजन करते हैं।।
भारत माता के पुत्र आज, इस माटी से चन्दन करते हैं।।

झर-झर, झर-झर झरते झरने, नदियां रसधार बहाती हैं।
पावस में रिम-झिम बूदें भी, राग मल्हार सुनाती हैं।
है हरित वर्ण माँ का आँचल, रसयुक्त यहां की बोली है।
त्यौहार अनगिनत होते जहाँ, पूजा की थाली, रोली है।
महर-महर महके फुलवारी, भौंरें भी गुंजन करते हैं।।
भारत माता के पुत्र आज, इस माटी से चन्दन करते हैं।।

कुछ मित्र भूल ये कर बैठे, सहने को समझे लाचारी हैं।
है रक्त उबलता मेरा भी , पड़ सकता उनको भारी है।
करते हैं सौ तक माफ़ सुनो, हम कृष्ण की रीति निभाते हैं।
जग को हम फिर बार-बार, सौहार्द का पाठ पढ़ाते हैं।
अरि भी जो आये दरवाजे, उसका अभिनन्दन करते हैं।।
भारत माता के पुत्र आज, इस माटी से चन्दन करते हैं।।





Monday, August 4, 2014

तुलसी-जयंती

 













 श्रद्धेय संत गोस्वामी तुलसीदास का जन्म श्यामसुन्दर दास और जनश्रुतियों के आधार
पर श्रावण मास, शुक्ल सप्तमी, संवत १५५४ को बाँदा जिले के राजापुर गांव में आत्माराम
दुबे के घर हुआ था. इनकी माता का नाम हुलसी था. तभी तो संत कवि रहीम अपने को रोक
नहीं पाते हैं और उनके मुख से निकल ही पड़ता है -'' सुरतिय,नरतिय,नागतिय, सब चाहति
अस होय. गोद लिए हुलसी फिरैं, तुलसी सों सुत होय.
      जब सारी सृष्टि की माताएं तुलसी के समान पुत्र की कामना करने लगें। तो कुछ ईशवरीय
चमत्कार होना ही था। वही हुआ  तुलसी को ऐसी ''राम-कृपा'' प्राप्त हुई कि भक्ति गंगा में वे गोते
लगाने लगे. उसी का परिणाम हुआ कि उनके द्वारा ''श्री रामचरित मानस'' जैसे भक्तिमार्गी
महाकाव्य की रचना हुई. उससे समस्त जनमानस को 'राम-भक्ति गंगा' में नित्य गोते लगाने
का सुअवसर प्राप्त हुआ. इसकी इतनी सरल भाषा, जिसने सभी लोगों के मन को अपनी ओर
आकर्षित कर लिया। तभी तो संत तुलसीदास हिंदी काव्य जगत के चन्द्रमा हो गए. किसी ने
ठीक ही लिखा है- ''सूर-सूर, तुलसी शशी, उडगन केसवदास।
                          अब के कवि खद्दोत सम, जंह-तंह करत प्रकास।।''
     
पावन कुल रघुवंश में जन्म, राम को रूप देखावत को।
वर दन्त की पंगत कुंद कली, ऐसे छन्द को गावत को।
जनकलली लछमी के रूप को, दशरथ-बहू बनावत को।
होत न तुलसी जो जग में, राघवेन्द्र की धार बहावत को।।

किष्किन्धा पर मन मारि रहे, हनु से सुग्रीव मिलावत को।
रामहि राम रटैं जो पवनसुत, राम के दरस करावत को।
दंतन बीच बसे जस जिभिया, विभीषण से राम रटावत को।
होत न तुलसी जो जग में, राघवेन्द्र की धार बहावत को।।

''भक्त प्रवर तुलसीदास की जयंती के अवसर पर उनको कोटिशः प्रणाम''

   

Friday, August 1, 2014

घनराज सुनौ

घनराज सुनौ अरदास मोरि,
बूंदन कइ बान चलाइ देउ।
हमरी आंखी पथराइ गयीं,
अब आस पिआस मिटाइ देउ।

खेतन कइ छाती दरकि रही,
बेहन सबै मुरझाइ गयी।
रोपनी कै जिव मा ललक रहै,
तुमरी किरपा ते बुझाइ गयी।
आँखिन मा जाला है परिगा,
तुमरी अब राहै देखै मा।
खेतै मा चक्कर काटि रहेन,
छाला अब परिगे पांवै मा।
अब तौ गति पपिहा अस होइगै,
तनि पानी कै धार गिराइ देउ।।
घनराज सुनौ अरदास मोरि,
बूंदन कइ बान चलाइ देउ।

तुम लुकाछिपी अब खेलि रहेउ,
घरवाली जइसे मुहिंका झांपै।
खेतै मा गन्ना अपनी जर ते,
तुमरे बिन थर-थर-थर कांपै।
मेहरारू अब तौ बार -बार,
नाकै की झुलनी मांगि रही।
खोंसि मोबाइल झोरा मा,
रोजइ मइके भागि रही।
वादा कीन धानन पर हम,
तनि हमरिउ लाज बचाइ लेउ।।
घनराज सुनौ अरदास मोरि,
बूंदन कइ बान चलाइ देउ।

इंजन बोरिंग पर बांधेन,
ठोंक-पीट तौ करे रहेन।
तुमरी बेरहमी का हमतौ,
लागति ब्याजै भरे रहेन।
कइसे डारी यहिके पेटे,
डीजल बहुतै मंहग भवा।
ससुरी मंहगाई डायन का,
यहुतौ बेटवा सगा भवा।
मगज कुन्द भै अब हमारि,
तनि धक्का मारि चलाइ देउ।।
घनराज सुनौ अरदास मोरि,
बूंदन कइ बान चलाइ देउ।